Wednesday, September 29, 2010

रिश्ता

  • कहानी -  मनोज कुमार

मिसेज मेहरा आज कई दिनों के बाद अपनी पुरानी सहेली विमला के घर आई थी. पहले वे अक्सर यहाँ आया करती थी मगर इस बार कई दिनों के बाद आना हो रहा था.
दोनों ड्राइंगरूम में बैठी बातें कर रही थी तभी विमला की बड़ी बेटी पूनम वहां चाय की ट्रे लेकर आ गई. पूनम ने मिसेज मेहरा का हाथ जोड़कर अभिवादन किया तो वे खुश रहने का आशीर्वाद देकर विमला से बोली- "तुमने पूनम की शादी के बारे में क्या सोचा है?"
"सोचना क्या है?" विमला ने कहा-"अभी तो यह बी.ए. कर रही है. कहती है इसके बाद फैशन डिजायनिंग का कोर्स करूंगी. शादी के लिए इसके पापा ने दस लाख का फिक्स डिपाजिट करा ही रखा है तो हमें कोई चिंता नहीं है."
मिसेज मेहरा चाय का एक घूंट लेकर थोडा ठहरकर बोली- "विमला, बुरा न मानों तो इसी सम्बन्ध में मैं तुमसे एक बात कहना चाहती हूँ."
"तो कहो न. चुप क्यों हो?"
"तुम तो जानती हो क़ि पूनम को हमारे घर में सभी अच्छी तरह जानते हैं और पसंद भी करते हैं. मैं चाहती हूँ क़ि हमारी यह दोस्ती रिश्तेदारी में बदल जाये?"
"क्या मतलब?" विमला ने चौंक कर कहा.
"मैं अपने बेटे सुधाकर के लिए तुमसे पूनम का हाथ मांगती हूँ." मिसेज मेहरा बोली.
जबकि उनकी बात सुनकर विमला ने बदले स्वर में कहा- "बुरा मत मानना प्रभा, दरअसल पूनम के पापा तो उसका विवाह किसी ऊँचे रसूख वाले घराने में करना चाहते हैं. वे चाहते हैं क़ि उनकी बेटी जहाँ जाए वहां राज करे. वे किसी साधारण परिवार में उसका रिश्ता नहीं करना चाहेंगे. फिर हमारे और तुम्हारे स्टेटस में अंतर भी तो कितना है..."
मिसेज मेहरा को अपनी सहेली से ऐसे किसी जवाब क़ि अपेक्षा नहीं थी. वह एकाएक कुछ कह नहीं सकी जबकि विमला ने कहना जारी रखा था- "तुम्हारे पति एक सामान्य शिक्षक हैं और सुधाकर भी तो अभी कुछ करता नहीं... पता नहीं आगे चलकर वह कुछ करेगा भी या नहीं...?"
"सुधाकर सिविल सर्विस क़ि तयारी कर रहा है." मिसेज मेहरा से रहा नहीं गया तो वह बोल उठी- "और तुम तो जानती ही हो क़ि पूनम और वह दोनों एक दुसरे को पसंद भी करते हैं."
"आजकल के ज्यादातर लड़के सिविल सर्विस की तैयारी करते ही देखे जाते हैं." विमला थोडा हंसकर बोली- "मगर सफल कितने होते हैं? लाखों में चंद गिने हुए कुछ खुशकिस्मत लोग...! और रहा सवाल इन दोनों क़ि पसंद का, तो तुम यूं क्यों नहीं कहती क़ि तुम्हारी नजर उन दस लाख रुपयों पर है जो पूनम के साथ उसके दहेज़ में जायेंगे!"
मिसेज मेहरा को उम्मीद नहीं थी क़ि उसकी खास सहेली उससे इस तरह का बर्ताव भी कर सकती है. उसे विमला क़ि बातें सख्त नागवार गुजरी. स्वयं को अपमानित सी महसूस करती हुई वह वहां से चली गई.
जबकि दरवाजे के पीछे खड़ी होकर सारा वार्तालाप सुन रही पूनम को अपनी माँ का यह व्यवहार बहुत ही बुरा लगा. उसे अपनी माँ पर काफी क्रोध आ रहा था. आखिर क्यों उसने उनसे इस तरह क़ि बाते कही? यह सच था वह सुधाकर को पसंद करती थी, मगर इंकार करने के और भी तो तरीके होते हैं. इस तरह उनका अपमान करना क्या उचित था? शायद अब वे दुबारा यहाँ कभी न आयें.
फिर इस घटना को हुए काफी समय बीत गया.
इस बिच पूनम ग्रेजुएशन की पढाई पूरी कर फैशन डिजायनिंग के कोर्स में दाखिला ले चुकी थी. घर वाले उसके लिए ऊँचे घराने के किसी योग्य वर की तलाश में जुट चुके थे.
एक दिन अख़बार में खबर छपी क़ि उनके शहर से पहली बार किसी ने आई.ए.एस. क़ि परीक्षा उत्तीर्ण की थी. मालूम हुआ क़ि वह कोई और नहीं बल्कि सुधाकर ही था जो क़ि अपने अंतिम प्रयास में फाइनेली सिलेक्ट हो गया था. उसके घर पर बधाई देने वालों का ताँता लग गया था.
उसी शाम पूनम ने अपनी माँ को पापा से कहते सुना- "सुनते हो, मिसेज मेहरा का लड़का सुधाकर आई.ए.एस. हो गया है. वही जो एक दिन पूनम का हाथ मांगने हमारे घर आई थी. मैं आज ही यह रिश्ता लेकर उनके पास जा रही हूँ."
जब पूनम ने ऐसा सुना तो उसे यकीन नहीं हुआ क़ि उसकी माँ ऐसा कह रही है. जिसने खुद एक दिन इस रिश्ते को तोड़ दिया था. आज वह इस रिश्ते को फिर से जोड़ने का प्रयास कर रही थी सिर्फ इसलिए क़ि सुधाकर अब कोई सामान्य प्रतियोगी नहीं, बल्कि आई.ए.एस. बन चुका था.
पूनम आज पहली बार किसी बात को लेकर अपनी माँ के विरोध में खड़ी थी- "माँ, अब तुम वहां मत जाओ...."
"क्यों?" विमला ने हैरानी से पूछा.
पूनम थोड़ी देर तक चुप रही. फिर नपे तुले शब्दों में बोली- "माँ, जिस सम्बन्ध को तुम पहले ही तोड़ चुकी हो उसे दुबारा लेकर तुम्हारा वहां जाना ठीक नहीं."
"ओह." विमला ने हंसकर कहा-"बेटी, तुम दुनिया के रीती-रिवाजों को जानती नहीं. जिसे गरज पड़ती है, उसे थोडा झुकना ही पड़ता है. सब ऐसा ही करते हैं. यही दुनिया का चलन है."
पूनम माँ के बदले हुए रूप को देख रही थी. माँ के जवाब का उस पर कोई असर नहीं हुआ था. कदाचित वह जान रही थी क़ि वहां से क्या जवाब मिलेगा?
रात को जब माँ मिसेज मेहरा के यहाँ से लौटी तो उनका चेहरा बता रहा था क़ि उन्हें अपने मिशन में कामयाबी नहीं मिली है. खाने के समय वे पापा से कह रही थी - "लड़का आई.ए.एस. बन गया है तो मिस्टर और मिसेज मेहरा के तो पाँव ही जमीं पर नहीं हैं. जब मैंने उन्हें पुराने रिश्ते का ध्यान दिलाया तो वे कहने लगी क़ि उनके पास बड़े-बड़े रिश्तों के आफर आ रहे हैं. लोग पच्चीस लाख नगद और एक कार देने क़ि बात कर रहे हैं."
वे काफी देर तक इस मामले को लेकर नुक्ताचीनी करते रहे और अन्दर दरवाजे से टेक लगाये पूनम नम आँखों से उन्हें सुन रही थी.

प्रकाशित - शुभ तारिका





Tuesday, September 28, 2010

ये सपना है

बी.बी.सी. लंदन से नई सहस्त्राब्दी के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम -
"ये सपना है" में 29 जनवरी 2000 को प्रसारित

"नई सहस्त्राब्दी में मेरा सपना है- एक सुन्दर, स्वस्थ और आतंक रहित समाज के निर्माण की. आज समाज में चारो ओर भय और आतंक का राज कायम है. इससे क्षेत्रीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवीय भावनाएं आहत हुई है. आखिर मानव ही आज अपनी मानवता को भूल गया है और पशुओं की मानिंद निर्विकार और भावशून्य हो गया है. भय और आतंक के इस राज से किसे क्या मिलने वाला है?
आज मनुष्यों में संवेदनहीनता बड़ी हद तक बढ़ गयी है. संवेदनशीलता से दूर-दूर तक उनका कोई नाता नहीं है. मानव में संवेदना का होना काफी जरूरी है. इस संवेदनशीलता के अभाव में मनुष्य अपने रिश्तों, संबंधों व नैतिक विचारों को कभी मजबूत नहीं कर सकता है, उसमे दरारें जरूर डाल सकता है.
मानवीयता की कमी और घोर संवेदनहीनता के कारण मनुष्य का रूप विकृत हो चला है. एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से डर कर रहना पड़ता है. क्या जीवन इसी का नाम है? डर-डर कर और सहम कर जीना ही क्या वर्तमान में जीवन की गति है? ऐसा न हो, इसलिए हमें अपने विचारों में कोमलता, संवेदनशीलता और मानवीयता के प्रति सम्मान रखना होगा. तभी इस धरती पर एक मनुष्य दुसरे किसी अनजान जगह पर नए लोगों के बीच उल्लास और भयमुक्त होकर रह सकेगा ! "
- मनोज कुमार

हास्य नाटिका - "असली नेता"

पात्र परिचय-
१. नेताजी- विधायक बनने का ख्वाहिशमंद एक चुनावी उम्मीदवार
२. रामभरोसे- नेताजी का परिचित एक व्यक्ति
*****
(मंच पर रामभरोसे एक सामान्य ग्रामीण वेशभूषा में खड़ा है. उसकी राजनीति में काफी दिलचस्पी है क्योंकि उसके परिचित नेताजी विधानसभा का चुनाव लड़ने की तयारी में लगे हुए है.)

रामभरोसे- "आजकल जिसे देखो वही चुनाव लड़ने की बात करता है. जैसे यही सबसे फायदे का धंधा बन गया हो. न जाने इस देश का क्या होगा? जहाँ सब केवल अपना ही फायदा देखते है. अब नेताजी को ही देख लो, पिछली बार भी चुनाव लड़े थे. जमानत जब्त हो गई थी. फिर भी सबक नहीं लिया. अब दुबारा चुनाव लड़ने की तयारी में हैं."

रामभरोसे की बात समाप्त होते ही मंच पर धोती-कुरता और गाँधी टोपी पहने नेताजी का आगमन होता है.
रामभरोसे- "राम-राम नेताजी."
नेताजी- "राम-राम भाई. राम-राम."
रामभरोसे- "आज सुबह-सबेरे कहाँ चल दिए धोती उठाई के, नेताजी?"
नेताजी- "अरे भाई रामभरोसे, हम चले हैं अपने क्षेत्र में जनसंपर्क बनाने."
रामभरोसे- (अनजान बनते हुए)-"जनसंपर्क? ई जनसंपर्क का होता है नेताजी?"
नेताजी- "अरे मुरख. तू रहेगा गंवार का गंवार ही. तू इतना भी नहीं जानता. जनसंपर्क का माने होता है पब्लिक रिलेशन. यानि लोगों से मिलना-जुलना. उनका हाल-चाल लेना और उनकी सुविधा का ख्याल रखना. तभी तो कोई हमें वोट देगा."
रामभरोसे- "अच्छा! (सर हिलाते हुए) तो ई होता है जनसंपर्क."
नेताजी- "हाँ.तुझे मालूम है न की चुनाव फिर से होने वाला है."
रामभरोसे- "वो तो ठीक है. लेकिन पिछली बार तो आपकी जमानत भी नहीं बच पाई थी."
नेताजी- "लेकिन इस बार मैं रिकार्ड मतों से जीतूँगा."
रामभरोसे- "वो कैसे?"
नेताजी-"मैं इस बार ऐसा जबरदस्त प्रचार अभियान चलाऊंगा की सब चरों खाने चित जा गिरेंगे. उठने का मौका भी नहीं दूंगा ससुरन को. इस बार जीत मेरी ही पार्टी की होगी."
रामभरोसे- "आप तो रोज पार्टी ही बदलते रहते हैं नेताजी. वैसे आप अभी हैं किस पार्टी में?"
नेताजी- "देखो, मैंने टिकट तो माँगा था हाथी वालों से, लेकिन मेरी असली क़द्र जानी गैंडा छाप वालों ने.इसलिए मैं उस पार्टी में शामिल हो गया."
रामभरोसे- "गैंडा छाप?"
नेताजी- "हाँ, गैंडा छाप!"
रामभरोसे- "ई कोई नई पार्टी है का नेताजी? पहले तो कभी इसका नाम नहीं सुना.?"
नेताजी-"कोई बात नहीं. अब सुन लिया न!"
रामभरोसे- "हाँ."
नेताजी- "अगर कोई पार्टी इस बार चुनाव जीतेगी, तो वो सिर्फ गैंडा छाप ही होगी. जानते हो क्यों?"
रामभरोसे- "क्यों?"
नेताजी- "वो इसलिए की गैंडा कभी भी हार मानना नहीं जानता. वो इसलिए हार नहीं मानता क्योंकि उसकी खाल काफी मोटी होती है."
रामभरोसे- "हो-हो-हो...!"
नेताजी- "अब हँसना बंद कर बुरबक. ज्यादा दाँत मत दिखा. मैंने कुछ गलत कह दिया क्या?"
रामभरोसे- "नहीं नेताजी. आप भला कुछ कैसे कह सकते है? गैंडे की खाल तो सचमुच इतनी मोटी होती है की उसमे भाला भी मारो तो नहीं घुसता."
नेताजी- " तभी तो मैं कहता हूँ की इस बार मेरी जीत पक्की है."
रामभरोसे- "अच्छा नेताजी, एक बात बताइये. जब आप जीत कर मंत्री बन जायेंगे, तो सबसे पहला काम क्या करेंगे?"
नेताजी- "लो, ई भी भला कोई पूछने की बात है?"
रामभरोसे-"क्यों? मैंने कुछ गलत बात पूछ दिया क्या नेताजी?"
नेताजी- "अरे बुरबक, ई त कॉमन सेंस की बात है. क्या तू इतना भी नहीं जानता कि मंत्री बनने के बाद सबसे पहले क्या किया जाता है?"
रामभरोसे- "क्या किया जाता है नेताजी?"
नेताजी- "पहले एक मतलब कि बात सुनो. आज हमारे देश कि जनता बहुत जागरूक हो गई है. वह बार-बार किसी एक को चुनाव नहीं जिताती. इसलिए मैं सिर्फ एक बार किसी तरह साम, दाम, दंड, भेद से यह चुनाव जीत कर मंत्री जाऊं, फिर उसके बाद देखना कि मैं क्या करता हूँ!"
रामभरोसे- "फिर क्या करेंगे नेताजी?"
नेताजी- "फिर मैं एक ही झटके में इतना बड़ा घोटाला करूंगा कि अगले-पिछले सारे घोटालों का रिकार्ड टूट जायेगा. चारा घोटाला, यूरिया घोटाला, अलकतरा घोटाला, बोफोर्स तोप घोटाला, बाढ़ रहत घोटाला... सब उसके आगे बौने हो जायेंगे. घोटालों के सन्दर्भ में मेरा नाम गिनीज बुक में दर्ज हो जायेगा. फिर उसके बाद मैं मंत्री बनूँ या नहीं, कोई परवाह नहीं. मेरी सात पुश्तों के बैठ कर खाने का जुगाड़ तो हो ही जायेगा."
रामभरोसे- "लेकिन नेताजी, अगर कहीं आप पकडे गए तो फिर तो जेल कि हवा खानी पड़ेगी."
नेताजी- "दूर बुरबक.ऐसा कहीं होता है! बड़े मंत्री को इधर जेल होता है और उधर बेल हो जाता है. अगर बेल न भी हो तो वहां घर जैसा ही आराम मिलता है. खाने में छप्पन भोग, ए.सी.कमरा, गद्दे, रंगीन टीवी, मोबाइल. और तो और जेल के सारे स्टाफ नौकर-चाकर बने रहते हैं. समझा कि नहीं? अच्छा तो अब मैं चलता हूँ."
इतना कहकर नेताजी चले जाते हैं. रामभरोसे उनके चले जाने के बाद अपने आप से कहता है-
रामभरोसे- "वाह नेताजी. अब तो आप में सचमुच एक असली नेता के लक्षण आ गए हैं. मुझे पक्का विश्वास हो गया है कि इस बार आप जरूर चुनाव जीत जायेंगे!"

(पर्दा गिरता है.)

-मनोज कुमार

Monday, September 27, 2010

हंस का फैसला


  • बाल कहानी - मनोज कुमा
नदी के किनारे एक गांव था. गांव के बीच एक छोटा सा बरगद का पेड़ था. उस पेड़ पर चिड़िया का एक जोड़ा घोंसला बना कर रहता था. उस जोड़े का जीवन बड़ा शांतिपूर्वक व्यतीत हो रहा था. तभी एक कौआ उस पेड़ पर आया और चिड़िया के उस जोड़े से कहने लगा-"यह पेड़ हमारा है. तुमलोग इसे छोड़कर चले जाओ."
उस जोड़े ने कहा-"कैसे यह पेड़ तुम्हारा है? हम तो कई वर्षों से यहाँ रह रहे हैं."
"लेकिन अब मेरा है." कौआ बोला.
दोनों के बीच तकरार बढ़ गई. अंत में यह तय हुआ की चलो, हंस राजा के पास चलते हैं. वही इस बात का फैसला करंगे. चिड़िया और कौआ दोनों हंस के पास चले.
उनकी बात सुनकर हंस सोच में पड़ गया. चिड़िया के जोड़े ने उससे कहा-"हम कई सालों से यहाँ रह रहे हैं. मगर यह हमें कभी नहीं दिखा. यह बेवजह हमें सताने के लिए यहाँ आ गया है."
"यह पेड़ हमारे बुजूर्गों का था." कौआ अक्खड़ स्वर में बोला- "मैं कुछ समय के लिए बाहर चला गया, इसका मतलब यह तो नहीं कि तुम उस पर कब्ज़ा कर लो. मैं अब आ गया हूँ. इसलिए तुम्हें वह पेड़ छोडनी पड़ेगी."
कौए की मक्कारी भरी बातों को सुनकर हंस सबकुछ समझ गया. वह सोचने लगा-"यह दुष्ट कौआ बेवजह इन निर्दोष जोड़ों को तंग कर रहा है. वह सीधे कोई बात नहीं मानेगा. इसलिए इसके साथ कूटनीति से काम लेनी चाहिए." यह सोचकर उसने कौए को उस पेड़ पर रहने की अनुमति दे दी. और उस जोड़े से कहा कि वह अगले दिन आकर उससे मिले.
हंस जिस तालाब में रहता था, उसमे उसका एक नाग मित्र भी रहता था. उसका एक अन्य मित्र एक गिध्द भी था. उसने इस मामले में उन दोनों कि मदद लेने की सोची.
उस रात जब कौआ बरगद की एक डाल पर ऊँघ रहा था तभी उसके कानों में यह आवाज पड़ी-"नागराज, मैं बहुत बीमार हूँ. मुझे बैद्यराज गरुड़ ने कहा है कि अगर मैं कौए का मांस खा लूं तो मेरी बीमारी ठीक हो सकती है."
इतना सुनना था कि कौआ चौकन्ना हो गया. उसने देखा, बरगद कि ऊपरी डाल पर एक गिध्द बैठा हुआ है. उसके ठीक सामने कि डाल पर एक काला नाग लिपटा हुआ था. उसने कहा-"गिध्दराज, आज रात ही एक कौआ इस बरगद पर रहने के लिए आया है. मैं उसे डंस लूँगा तो वह मर जायेगा. फिर तुम उसे खाकर अपनी बीमारी दूर कर सकते हो."
इतंना सुनना था कि बरगद कि डाल पर बैठे कौए के होश उड़ गए. उसने सोच-"ओह! यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं है." और अगले ही पल अँधेरे में उसने अपने पंख फड़फड़ाए  और किसी अनजान दिशा कि और उड़ गया.
अगले दिन जब चिड़ियों का जोड़ा हंस से मिला तो उसने बताया कि किस प्रकार उसने अपने नाग और गिध्द मित्र की मदद से एक अनोखी योजना बनाकर कौए को हमेशा के लिए वहां से भगा दिया है. उस जोड़े ने हंस को धन्यवाद् दिया और फिर से बरगद पर आकर ख़ुशी-ख़ुशी रहने लगे.
प्रकाशित- पंजाब केसरी, आर्यावर्त, कान्ति, तरंग भारती, दै. शेरे हरियाणा, मीडिया एंटरटेनमेंट फीचर्स

Friday, September 24, 2010

जागते रहो

Wednesday, September 22, 2010

बिहार की राजनीति और चुनाव की आहट

एक पुरानी कहावत है- "प्यार और जंग में सब जायज है." आज के दौर में यह कहना गलत न होगा की "राजनीति और सत्ता की जंग में सब जायज है."
बिहार में विधानसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है. राजनीतिक दल अपनी उठा-पटक में लगे हुए हैं. सभी अपना-अपना समीकरण दुरुस्त करने में जुटे हुए हैं. एक बार फिर से मतदाताओं का दरबार सज गया है. टिकट न मिलने पर नेता एक पार्टी से कूद कर दूसरी पार्टी में ऐसे छलाँगे लगा रहे हैं जैसे पहली पार्टी में छूत का रोग लगा हो. . इससे पता चल जाता है की वे कितनी निःस्वार्थ राजनीती कर रहे हैं.
कहा जाता है की लोकतंत्र में जैसी जनता वैसी सरकार! ऐसे मतलबी और स्वार्थ की राजनीती से प्रेरित नेताओं को सबक सिखाना जनता का ही काम है. ऐसा तभी संभव है जब अवाम भी जातिगत और क्षेत्रवाद की भावनाओं से ऊपर उठकर निःस्वार्थ भाव से सही-गलत का चिंतन करे और अपने मत का मूल्य समझें. मतलबपरस्त, दागदार, बाहुबली नेता अपने सिवा किसी का क्या भला करेंगे? ऐसे स्वार्थलोलुप लोगों से राज्य की जनता को बचकर ही रहना चाहिए. अन्यथा फिर भगवान ही मालिक है.

Wednesday, September 15, 2010

Tuesday, September 14, 2010

हिंदी दिवस की शुभकामनाएँ

सबसे पहले तो आप सबको हिंदी दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ! कम-से-कम अपने देश में एक दिन तो ऐसा है जहाँ अंग्रेजी के पक्षधर लोग भी हिंदी के समर्थन में एक पंक्ति में खड़े दिखते है. १४ सितम्बर को हिंदी दिवस मनाने की परंपरा का निर्वाह करते हुए छः दशक गुजर चुके है, मगर राष्ट्रभाषा होते हुए भी अपने ही देश में, अपने ही घर में, अपने ही लोगों क्र बीच उसे वह हक़ और सम्मान नहीं मिला-जिसकी वह हक़दार है. भला हो बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिन्दीभाषी कुछ राज्यों का - जहाँ भाषाई रूप में यह शीर्ष पर विराजमान है, अन्यथा कई राज्यों में तो यह हाशिये पर खड़ी दिखती है.
ऐसा नहीं है की देश में हिंदी में काम नहीं होता, होता है- मगर आम लोगों की बात छोड़ दें तो ऊँचे तबके और प्रशासनिक महकमे में इसकी उपस्थिति कम से कमतर होती जाती है. हिंदी दिवस के अवसर पर वहां बड़ी-बड़ी बातें तो की जाती है, मगर केवल औपचारिकता वश. सच पूछा जाये तो हिंदी के असली पैरोकार तो यहाँ की आम जनता है. साधारण तबके के वे लोग हैं जो किसी दिखावे में नहीं बल्कि सिर्फ अपने काम में विश्वास रखते हैं. हिंदी दिवस क्या है- कब मनाया जाता है? क्यों मनाया जाता है- उसे इससे कोई विशेष लेना-देना नहीं. लेकिन वह हिंदी का असली पुजारी है. भले ही इसे लेकर उस पर पिछड़ेपन का धब्बा लगे- वह हासिये पर खड़ा रह जाये, लेकिन वही हिंदी का पहरुआ बना रहेगा.
हालाँकि स्थिति अब बदल रही है, हिंदी का वर्चस्व बढ़ रहा है.लेकिन इसका श्रेय उन आम लोगो को जाता है, जिन्होंने इस भाषा को महत्व दिया. इसे अपनाया और काम किया. हाँ, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे और विस्तार देने की जरुरत है, जिसमे सब की भागीदारी अपेक्षित है.

Saturday, September 11, 2010

'फोटोग्राफर की चालाकी'

  • बाल कहानी- मनोज कुमार
एक फोटोग्राफर था. वह हमेशा अपने गले में एक कैमरा लटकाए रहता था. उसे जंगलों में घूमने का बहुत शौक था. अकेले ही वह घने जंगलों एवं पहाड़ियों में जाकर घूमता रहता और वंहा के प्राकृतिक दृश्यों को अपने कैमरे में कैद करता फिरता. ऐसे ही वह एक समय किसी जंगल से होकर गुजर रहा था.
सहसा वातावरण में जोर की एक दहाड़ गूंजी. फोटोग्राफर अपनी जगह पर ठिठक गया. उसने अपने आस-पास देखा. तभी एक पेड़ की ओट से एक बाघ निकलकर उसके सामने आ गया. इसने कहा- "ऐ फोटोग्राफर, आज मैं बहुत भूखा हूँ. तुम्हें खाकर अपनी भूख मिटाऊंगा."
बाघ की यह बात सुनकर फोटोग्राफर डर गया. वह सोचने लगा कि कैसे अब अपने प्राणों कि रक्षा कि जाये? यहाँ उसके जीवन-मरण का सवाल आ खरा हुआ था. वैसे कठिन पल में भी उसने अपनी हिम्मत नहीं हारी और बुद्धि से काम लेने कि सोची.
अगले ही पल उसने संभल कर कहा- "हे बाघ महाराज! ऐसे तो आप मुझे खाकर बड़े घाटे में रहोगे."
"वह कैसे?" बाघ ने आँखे तरेरते हुए पूछा.
फोटोग्राफर के दिमाग में चटपट एक योजना आ चुकी थी. उसने आव देखा न ताव, अपना कैमरा सीधा किया और बाघ कि कई तस्वीरें खिंच डाली.
फिर उसने कहा-"वह ऐसे कि तुम मुझको अगर खा लोगे तो तुम्हें जानने वाला इस दुनियां में कोई न होगा. अगर तुम मुझे छोड़ दो तो मैं तुम्हारी तस्वीरें सरे लोगो को दिखाऊंगा. उन्हें अख़बारों और पत्रिकाओं में छपवाऊंगा. इन्टरनेट पर लोड कर दूंगा. ऑरकुट, चिरकुट, फेशबुक, ट्विटर सभी वेब साईट पर ऑनलाइन कर दूंगा. इस तरह तुम फ़ौरन हिट हो जाओगे और हर कोई तुम्हें जान जायेगा. फिर तो तुम हीरो बन जाओगे और सारी दुनिया में सिर्फ तुम्हारे ही चर्चे होंगे."
"क्या सच?" उसकी बातें सुनकर अचानक बाघ कि आँखे चमक उठी-"तुम मेरी तस्वीरे अख़बारों में छपवाओगे? मुझे ऑनलाइन कर दोगे?"
"हाँ." फोटोग्राफर ने तपाक से जवाब दिया- "बिलकुल."
"फिर ठीक है." बाघ ने खुश होकर कहा-"मैं अब दूसरा शिकार कर लूँगा. तुम जा सकते हो. लेकिन मेरी तस्वीरों को ऑनलाइन करना जरूर."
"वह तो करूंगा ही." इतना कहकर फोटोग्राफर ने अपना कैमरा संभाला और सर पर पांव रखकर वहां से भाग खड़ा हुआ.
प्रकाशित- आर्यावर्त, लोकमत समाचार, रांची एक्सप्रेस, बाल कल्पना कुञ्ज, दैनिक शेरे हरियाणा, तरंग भारती, मीडिया केअर नेटवर्क द्वारा प्रसारित.

Saturday, September 4, 2010

Happy Teacher's Day

Thursday, September 2, 2010

लेख- E Learning


शिक्षा का बदलता स्वरूप- आदि गुरू से ई-गुरू तक
जैसे-जैसे समय में बदलाव आता गया, शिक्षा के स्वरुप में भी आधारभूत परिवर्तन होता रहा है. एक समय था जब प्राचीन काल में आदि गुरु यथा ऋषि-मुनि अपने आश्रम में छात्रों को शिक्षा प्रदान करते थे. दूर-दूर से छात्र उनके गुरुकुल में आते थे, चाहे वह किसी राजा का पुत्र हो अथवा रंक का, एक साथ गुरु आश्रम में रहकर भिक्षाटन और गुरु की सेवा करते हुए शिक्षा प्राप्त करते थे. गुरु भी सामान रूप से सभी को शिक्षा दिया करते थे. उस समय गुरु का स्थान काफी ऊंचा था. वे हर जगह पूजनीय होते थे. उनका रहन-सहन अति साधारण मुनिवेश हुआ करता था. शिक्षोपरांत शिष्य अपने गुरु को यथासंभव दान-दक्षिणा इत्यादि देकर जीवन क्षेत्र में प्रवेश करते थे. गुरु उन्हें सफल जीवन का आशीर्वाद प्रदान करते थे.
उस कालखंड में गुरुकुल की यह परंपरा काफी लम्बे समय तक चलती रही.
फिर समय के बदलते चक्र में गुरुकुल का स्थान आधुनिक स्कूल-कालेजों ने ले लिया. नित होते नए तकनिकी आविष्कारों ने लोगों के जीवन स्तर में काफी परिवर्तन लाया. इससे शिक्षा का क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा. पढने-लिखने के संसाधनों का अभूतपूर्व विकास हुआ. स्कूल और कालेज जो ज्ञान का केंद्र थे, इन संसाधनों से परिष्कृत होने लगे. भव्य भवन, संपन्न पुस्तकालय, आधुनिक प्रयोगशालाएं, कुशल व समर्पित शिक्षक- ये सब शिक्षा के एक नए केंद्र का स्वरुप गढ़ रहे थे. कुछ केंद्र तो ऐसे निर्मित हुए जो देश-विदेश में काफी प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुए. उनमे प्रवेश पाना काफी गौरव और सम्मान की बात मानी जाती थी. एक तरफ जहाँ नित नए विद्यालय और महाविद्यालय स्थापित हो रहे थे वहीँ दूसरी ओर शिक्षा काफी मंहगी भी होती जा रही थी. सरकारी सस्थानों में तो खैर कोई बात नहीं, किन्तु निजी संस्थानों में पढाई केवल समर्थ लोगों के लिए होकर रह गई.
अच्छे संस्थानों में जहाँ अध्ययन का उपयुक्त वातावरण और संसाधनों की समुचित व्यवस्था थी, वहां सभी के लिए प्रवेश कठिन होता गया. वहां मेधावी छात्र ही प्रवेश पा सकते थे. जनसँख्या के बढ़ते दबाब ने शिक्षा के क्षेत्र में कई नयी चुनौतियाँ पेश की. सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आई. ऐसी स्थिति में शिक्षा के स्तर में भी गिरावट आई.
आम पारंपरिक विषयों की पढाई करने वाले छात्रों का भविष्य कोई निश्चित नहीं होता था की वे आगे  चलकर क्या करेंगे? ऐसे में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या बनकर वर्तमान शिक्षा प्रणाली को चुनौती देने लगा और यह एक गंभीर समस्या बन गई.
शिक्षा शास्त्रियो और विद्वानों ने इस बात पर जोर दिया की हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जो हमें जीवन में व्यवस्थित होने में मदद करे. अतः शिक्षा को रोजगारपरक बनाने की दिशा में पहल शुरू हुआ. समय के अनुकूल पाठ्यक्रमों में ऐसे विषय जोरे जाने लगे जो समय की तेज रफ़्तार में भविष्य की उम्मीदों पर खरा उतर सके. तकनिकी, मैनेजमेंट, पब्लिक सेक्टर इत्यादि क्षेत्रों का चहुंमुखी विकास हुआ.



 चित्र : विभिन्न साइट्स से साभार
कहना न होगा की आधुनिक युग में कंप्यूटर और इन्टरनेट की क्रांति ने शिक्षा जगत का पूरा परिदृश्य ही बदल कर रख दिया है. इसने मानव जीवन के हर पहलू को न केवल प्रभावित किया है, बल्कि देखा जाये तो कार्य-व्यापार के भी हर क्षेत्र में अपनी पैठ बना ली है. सारी दुनिया एक छोटे से गावं में सिमट गयी है, जहाँ दूरियां कोई मायने नहीं रखती. एक देश का आदमी दुसरे देश की खबर चुटकियों में ले सकता है. अपने सम्बन्धी या मित्रों से बातें कर सकता है या फिर शॉपिंग का मज़ा ले सकता है. घर बैठे अनेकानेक कार्य करने की सुविधा मिल गई है.
इतना ही नहीं आज के दौर में पढने-लिखने और मनचाही शिक्षा प्राप्त करने की भी सारी सुविधाएँ इस ग्लोबल विलेज में घर बैठे संभव हो गया है. आदि हरु का स्थान अब ई-गुरु ने ले लिया है. आपके पास कोई प्रश्न है, ई-गुरु हाजिर है. अपने मनपसंद कोर्स कहाँ से करे? इंटरनेट गुरु के पास इसका भी जवाब है. जैसे-जैसे तकनीक उन्नत होती जा रही है, सुविधाएँ धीरे-धीरे आम लोगों तक पहुँच रही है. आम लोगों का जुड़ाव ही किसी भी सिस्टम या तंत्र को आगे लेकर जाता है.
मनमाफिक शिक्षा हासिल करने के लिए ई-गुरु अथवा कह सकते है ऑनलाइन पढाई का क्रेज धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है. सुविधाएँ सिमित होने के कारण भले ही यह प्रणाली अभी आम पहुँच से कुछ दूर है लेकिन इसकी पहल अपने यहाँ भी हो चुकी है. अब जाने-माने अनेक प्रतिष्ठित संस्थान कई तरह के ऑनलाइन कोर्स चला रहे हैं जहा इन्टरनेट के द्वारा विभिन्न विषयों की पढाई होती है. वहीँ समस्याओं का समाधान भी होता है. इन संस्थानों में इग्नू से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय और कई निजी शिक्षण संस्थान हैं जिनके शैक्षिक पोर्टल शिक्षार्थियों को अपनी शिक्षा का लाभ पहुंचा रहे हैं. कई ऐसे छात्र हैं जो पढाई करने के लिए दूर-दराज के शहरों में नहीं जा सकते जिसके अनेक कारण हो सकते हैं. उन छात्रों के लिए ऑनलाइन कोर्स एक बेहतर विकल्प साबित हो रहा है.
शिक्षा जगत में ट्यूशन की भी एक परंपरा बनी हुई है जिसका अपना एक खासा बड़ा बाज़ार है. आजकल तो शहरों में ट्यूशन और कोचिंग के नाम पर मानों लूट मची हुई है. उनकी फीस इतनी भारी -भरकम होती है कि एक आम अभिभावक के सुनते ही पसीने छूटने लगते हैं. ऐसे में ई-ट्यूटर एक वरदान बनकर सामने आया है जिसके ऑनलाइन या ऑफलाइन कोर्स अपने देश में खासे सस्ते हैं.
ऑनलाइन क्षेत्र कि हलचल अपने देश में खासकर दूर-दराज के गाँवों और कस्बाई इलाकों में अभी धीरे-धीरे विस्तार प् रही है. इसलिए लोग अभी इसके आदि नहीं हुए हैं. इंटरनेट का उपयोग बहुत हुआ तो कोई रिजल्ट देखने अथवा सूचना पाने या फिर ई-मेल इत्यादि करने के लिए कर लिया जाता है. सच पूछा जाये तो ये एक बानगी भर है, पूरा किस्सा तो अभी बाकि है.
कंप्यूटर का एक छोटा रूप मोबाइल भी है. एक समय था जब मोबाइल आम आदमी की पहुँच से दूर था. अब यह हर आम और खास व्यक्ति कि जेब में मौजूद है. अगर कभी पांच मिनट के लिए भी नेटवर्क चला जाता है तो लोग बेचैन हो उठते है. यही बात अगर कुछ वर्ष पहले कही जाती, तो शायद कोई यकीं नहीं करता कि ऐसा भी हो सकता है. एक तरफ इंटरनेट पर जहाँ नित नए स्कूल और कालेजों का उदय हो रहा है वहीँ मोबाइल भी अब इससे अछूता नहीं रहा है. अब मोबाइल के द्वारा भी शिक्षा देने कि पहल हो रही है. शैक्षिक कंटेंट्स मोबाइल हैण्डसेटों के अनुरूप बनाये जा रहे हैं. हालाँकि कहने-सुनने में यह बात थोड़ी  अजीब-सी जरूर लगती है, लेकिन वह दिन दूर नहीं जब यह सब हो रहा होगा और हम अपनी आँखों से सब देख रहे होंगे. मोबाइल एक ऐसा बहुपयोगी गैजेट होगा जो हमारे लिए महज बातें करने और मनोरंजन तक ही सिमटा नहीं रहेगा बल्कि बैंक, क्रेडिट कार्ड, सिक्योरिटी सिस्टम इत्यादि के अलावा हर तरह से समर्थ एक गुरु (ट्यूटर) का भी कम करेगा. हाँ इतना तय है कि हमें उसके सही इस्तेमाल के प्रति भी जागरूक रहना होगा अन्यथा बात बिगड़ते भी देर नहीं लगेगी.
टेक्नोलॉजी  के बढ़ते रफ़्तार ने लोगों की सोच को मीलों पीछे छोड़ दिया है. यदि हमें आगे रहना है तो समय के इस बदलते मिजाज को पहचानना होगा और अपने आप को इसके अनुरूप ढालने  के लिए तैयार रहना होगा. 
  • मनोज कुमार
  • published- swatantra warta