Friday, October 22, 2010

लोकतंत्र का महापर्व


दोषी कौन?

बिहार में इन दिनों लोकतंत्र का सबसे बड़ा महापर्व चल रहा है. विधानसभा चुनाव 21 अक्तूबर से शुरू होकर 20 नवम्बर तक कुल 6 चरणों में पूरे होंगे. मतों की गिनती 24 नवम्बर को होगी, तभी पता चलेगा की राज्य में किसकी सरकार बनेगी? किसी एक पार्टी अथवा गठबंधन को बहुमत मिलती है या नहीं?
एक माह से अधिक समय तक चलने वाले इस रस्साकस्सी में सरकार चाहे जिस पार्टी की भी बने- इतने दिनों तक यहाँ आम जन-जीवन अस्त-व्यस्त ही रहेगा. जनता के खर्चे से आयोजित होने वाले इस महापर्व में परेशानी भी आम जनता को ही झेलनी पड़ेगी. चाहे वह यातायात की असुविधा हो या दैनिक उपभोक्ता सामग्रियों की किल्लत की, जब तक चुनाव संपन्न नहीं हो जाता- तब तक धैर्य धारण करना ही पड़ेगा.
बहरहाल सरकार तो बनानी है न! सरकार चुनने की जिम्मेवारी भी जनता की ही है. भले ही कुछ लोग इसे मात्र अपने पड़ोसियों का कर्तव्य समझें और मतदान के दिन घरों से बाहर न निकले. आम दिनों में आये दिन सरकार को कोसने वाली जनता को इस महत्वपूर्ण फैसले की घडी में अपनी भागीदारी को सुनिश्चित कर लेनी चाहिए.
21 अक्तूबर को पहले चरण का चुनाव संपन्न होने पर न्यूज चैनलों में यह खबर आई की अपने आप को बुद्धिजीवी मानने वाले तथाकथित संभ्रांत लोग मतदान करने नहीं आये. हालांकि राज्य में मतदान का औसत प्रतिशत पचास से अधिक रहा. लेकिन इसमें अधिक योगदान ग्रामीण क्षेत्र के मतदाताओं का रहा, बनिस्पत शहरी क्षेत्र के मतदाताओं के. सवाल उठता है की आख़िरकार अपने कीमती मत का प्रयोग करने में ऐसी अरुचि क्यों? चुनाव कोई साधारण आयोजन नहीं है. यह एक मत्वपूर्ण फैसले की घडी है. अगर हम दो घंटे लाइन में खड़े होने के डर से मतदान करने नहीं जाते है तो फिर क्या हक़ बनता है पांच साल तक सरकार को कोसते रहने का?
चाहे आप बस में सफ़र कर रहे हों या ट्रेन में- किसी चौक-चौराहे पर खड़े हो या बाजार में राशन की दुकान पर- वहां कुछ ऐसे तेज-तर्रार लोग अवश्य मिल जायेंगे जो अपनी हर असुविधा के लिए सरकार को ही कटघरे में खड़े करने की कोशिश करते है. लेकिन जब सरकार चुनने की बारी आती है, तो इस महत्वपूर्ण समय में घर से बाहर निकलने में कतराते हैं और इसे ज्यादा तवज्जो नहीं देते. फिर असली दोषी कौन हुआ?