Wednesday, October 6, 2010

पदक की ललक में

  • कहानी- मनोज कुमार
रात्रि का अंतिम पहर अलविदा कहने को आतुर था. सुबह की लालिमा अभी फिजां में बिखरी  नहीं थी. सारा गाँव अभी निद्रा में डूबा हुआ था. ऐसे में गाँव से चार किलोमीटर दूर नदी तट पर एक परछाईं तेजी से भागी चली जा रही थी.
वह था गाँव का एक किशोर बालक रामा- जो प्रतिदिन सुबह-सवेरे नीम अँधेरे में उठकर दौड़ लगाने निकल पड़ता था. दरअसल उसे एक तेज धावक बनना था. उसकी बचपन से एक ही तमन्ना थी, कि उसे देश का ही नहीं, बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा धावक बनना है. इसके लिए उसे जितनी मेहनत करनी पड़ेगी, वह करेगा. वह देश और दुनिया में अपना नाम रौशन करेगा. एशियाड, ओलम्पिक, राष्ट्रमंडल खेलों जैसी बड़ी स्पर्धाओं में देश का प्रतिनिधित्व करके पदक जीतेगा.
इसमें कोई शक नहीं था कि वह एक बेहतरीन धावक था. इसका प्रमाण था - उसका अब तक का शानदार रिकार्ड!
उसने विद्यालय स्तर से लेकर जिले और राज्य स्तर तक सैकड़ों  गोल्ड मेडल जीते थे. उसका जूनून था कि उसे हर हाल में फर्स्ट आना है. उसके नीचे उसे कुछ भी मंजूर नहीं था.
वह तेजी से दौड़ता जा रहा था- और उसके मानस पटल पर पिछली एक घटना कि यादें ताज़ा हो आई. पहली बार उसे राज्य की तरफ से एक राष्ट्रीय स्पर्धा में  भाग लेने का मौका मिला था. और दुर्भाग्य  की  बात थी कि  वह उसमे पहला स्थान पाने से चूक गया. दूसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा. यह उसे गवारा नहीं हो रहा था. अगली बार अपने एक मित्र की सलाह पर वह एक ऐसा काम कर बैठा, जिसने उसे चयन समिति के कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया. किसी ने उस पर प्रतिरोधक  दवा  के सेवन का आरोप लगाया था. जांच में यह आरोप सही पाया गया था. चयन समिति ने उसे एक साल के लिए प्रतिस्पर्धा में भाग लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया. वह प्रतियोगिता में भाग लिए बिना घर वापस लौट आया.
अब वह पिता के कटघरे में खड़ा था. उन्होंने एक ही बात कही- "पदक का क्या मोल? बेईमानी की जीत से तो ईमानदारी की हार भली!"
स्वर्ण पदक की ललक में वह क्या कर बैठा था? इसकी जरुरत क्या थी? उसे क्यों अपने ऊपर भरोसा नहीं रहा था? एक छोटी सी भूल के लिए उसे कितनी फजीहत झेलनी पड़ी थी.
इन एक सालों में उसने लगातार परिश्रम ही किया था. कठोर परिश्रम... !
जो होना था, वो हो चूका था. अब उसने निर्णय ले लिया था. 
"मुझे हर हाल में अपने-आप को सिद्ध करना है. अपने लिए...देश के लिए...उसकी प्रतिष्ठा के लिए, मेहनत ही मेरा मूलमंत्र होगा."
और मन में यह विचार आते ही उसके क़दमों में एक तेजी आ गयी. ऐसा लग रहा था जैसे मंजिल काफी करीब आ गयी हो. सहसा एक नए उत्साह से वह भर उठा. वातावरण में चिड़ियों का कलरव गुंजायमान  हो उठा था. एक तरफ वह पवन की गति से भागा जा रहा था, दूसरी तरफ एक नया सूर्योदय आशा की किरणें चारों और फैला रहा था.