Wednesday, December 22, 2010

परिवार


एक गाड़ी है
इसमें कई कल-पूर्जे होते हैं
ये सभी एक साथ काम करते हैं
तो गाड़ी आगे बढ़ती है
बढ़ती है, बढ़ती जाती है।
जब तक इसके हर अंग
काम करते हैं साथ-साथ
गाड़ी चलती जाती है
अनवरत बढ़ती है
अपनी मंजिल की ओर!
अगर कोई कल-पूर्जा,
काम करना बन्द कर दे
तो वही गाड़ी
चल सकती है कभी?
अपनी रफ्तार से चल पाना
उसके लिए तब
मुश्किल   हो जाता है।
बिना मंजिल तक पहुंचे ही
बीच रास्ते में ही वह
रूक सकती है।
   ं ं ं ं ं
इसी तरह
परिवार एक गाड़ी है
विभिन्न सदस्य इसके
अलग-अलग कल-पूर्जे हैं
सभी के अपने हिस्से का
अपना-अपना काम है।
अगर कोई हिस्सा
अपना काम न करे
तो क्या परिवाररूपी गाड़ी
आगे बढ़ सकती है कभी?
वह भी गाड़ी की ही भांति
बीच रास्ते में ही
रूक सकती है।
आगे बढ़ना उसके लिए
मुश्किल  हो जाता है।
इस परिवाररूपी गाड़ी को
आगे बढ़ाने के लिए
जरूरी है कि
इसके सभी कल-पूर्जे
अपने हिस्से का काम
करते रहें अनवरत!
यहां एक बात
विचारणीय है कि
अगर मशीनरूपी गाड़ी का
कोई  भाग काम नहीं करता
तो उसे बदला जा सकता है
लेकिन परिवार में
ऐसा फेर बदल
सम्भव नहीं होता।
ऐसी विकृति यहां
एक दरार पैदा करती है!
खराब कल-पूर्जे
बदले नहीं जाते यहां
बल्कि उन्हें किया जाता है अलग
और पैदा हो जाता है
हंसते-खेलते परिवार में
एक बिखराव.....!

Sunday, December 19, 2010

कलाकार की साधना


बाल कहानी- मनोज कुमार

गांव की पाठशाला में मुकेश पांचवी कक्षा में पढ़ता था। वह पढ़ने-लिखने में काफी होनहार था। उसकी प्रतिभा को निखारने और एक नया आयाम देने में पाठशाला के अध्यापक रामजी दास का बहुत बड़ा योगदान था। वह जानते थे कि मुकेश एक गरीब घर का किन्तु प्रतिभावान छात्र है। अगर उसकी प्रतिभा को सही मार्ग दे दिया जाए तो वह जीवन में बहुत आगे तक जा सकता है। इसलिए वे उसे हमेशा प्रोत्साहित किया करते थे। उनके प्रोत्साहन का ही परिणाम था कि मुकेश की पढ़ाई-लिखाई में न केवल रूचि बढ़ गई थी, बल्कि परीक्षाओं में उसके अब बेहतर परिणाम दिखने लगे थे। उनके स्नेह और प्रोत्साहन को देखकर मुकेश उन्हें अपना आदर्श  मानने लगा था। 
रामजी दास जब भी मुकेश के पिता से मिलते तो उसके बारे में चर्चा करते। उससे कहते कि अपने बेटे को खूब पढ़ाओ, वह जीवन में काफी तरक्की करेगा। तब उसके पिता कहते कि इस कमरतोड़ मंहगाई के जमाने में मैं भला उसे कहां तक पढ़ा पाऊंगा? यहां तो दो जून की रोटी ही बड़ी मुश्किल  से जुटा पाता हूं।
ये बातें सुनकर मास्टर साहब को बहुत दु:ख होता था। वे सोचते थे कि मुकेश की प्रतिभा को उचित स्थान मिलना चाहिए। वे अपना अतिरिक्त समय देकर भी पढ़ाई में उसकी मदद करते थे। 
मुकेश की चित्रकारी में बहुत दिलचस्पी थी। मास्टर साहब ने देखा कि उसकी कापियों में अक्सर कई आड़ी-तिरछी लकीरें खींची हुई थी जिनका यों तो कोई मतलब नहीं था, लेकिन अगर कला का पारखी कोई व्यक्ति उन लकीरों को देखता तो अवश्य ही प्रभावित हुए बगैर नहीं रहता। वे लकीरें जैसे बहुत कुछ कहती थी। वे उसे और चित्र बनाने के लिए सदैव प्रोत्साहित करते रहते थे।
इसी दौरान पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले छात्रों के लिए जवाहर नवोदय विद्यालय में नामांकन हेतु आयोजित होने वाले प्रवेश परीक्षा का फार्म विद्यालय में आया था। मास्टर साहब ने मुकेश का फार्म भरवा दिया कि अगर उसका नामांकन नवोदय विद्यालय मे हो जाता है तो उसकी पढ़ाई की चिन्ता उसके माता-पिता को नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि वहां सरकारी खर्चे पर पढाई की सारी व्यवस्था होती थी। उन्होंने उसे उचित मार्गदर्शन  दिया और प्रवेश परीक्षा में मुकेश सफल रहा।
उसका नामांकन जिले के नवोदय विद्यालय में छठी कक्षा में हो गया। उसकी सफलता देखकर उसके माता-पिता बहुत ही खुश थे। वे मास्टर साहब को बार-बार दुआएं देते थे कि उनकी मदद से ही मुकेश का नामांकन इतने अच्छे विद्यालय में हो सका था जहां पढ़ाने के लिए उन्हें कोई अतिरिक्त खर्च नहीं देना पड़ता। 
वहां पढ़ाई के दौरान मुकेश का सामना एक नये ही वातावरण से हुआ। काफी बड़ा विद्यालय परिसर। रहने के लिए हॉस्टल और खाना-पिना, रहना सब मुफ्त। वह मन लगाकर पढ़ाई करने लगा। 
इसी बीच एक राष्ट्रीय स्तर की चित्रकला प्रतियोगिता का आयोजन एक बड़े समाचार-पत्र समूह की तरफ से किया गया था। उसके बारे में मुकेश को भी जानकारी मिली। उसकी चित्रकला में तो शुरू से ही रूचि थी। उसने अपने विद्यालय के शिक्षकों से परामर्श लिया तो कला शिक्षक ने उसका मार्गदर्शन किया। बस उसने एक बच्चे का चित्र बनाया जो आकाश को निहार रहा था, मानों वह उसकी ऊंचाइयों को छू लेना चाहता हो और उसे प्रतियोगिता में भेज दिया।
महीने भर बाद जब अखबार में प्रतियोगिता का परिणाम निकला तो मुकेश को इसकी सूचना अपने विद्यालय के प्रिंसिपल से मिली। उन्होंने खुशी-खुशी बतलाया कि उसके चित्र को न केवल प्रथम पुरस्कार मिला है बल्कि उसकी इस सफलता से देशभर में विद्यालय का भी नाम रौशन हुआ है। 
इस खबर के हफ्ते भर बाद ही गांव से मुकेश के नाम एक पत्र आया जिसे उसके पाठशाला के मास्टर साहब रामजी दास ने लिखा था। उन्होंने लिखा था-``तुम्हारे बारे में अखबार में पढ़ने को मिला। यह जानकर खुशी हुई कि तुम चित्रकला प्रतियोगिता में प्रथम आये हो। कलाकार की साधना एक-न-एक दिन अवश्य रंग लाती है। लेकिन तुम्हारी मंजिल अभी बहुत आगे है, चलते रहो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है...।´´
मुकेश ने पत्र को अपने माथे से सटा लिया। उसे ऐसा लग रहा था जैसे  इस पत्र के रूप में उसे सबसे बड़ा पुरस्कार मिल चुका था।

Thursday, December 2, 2010

विश्व एड्स दिवस के बहाने


1 दिसंबर को सारी दुनिया में विश्व एड्स दिवस मनाया जाता है. तमाम राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं इस दिन विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करती है. लोगों को जागरूक करने के लिए इस दिन कुछ नया करने का प्रयास किया जाता है. स्कूली बच्चे भी इस प्रयास में पीछे नहीं रहते. यह एक अच्छी बात है की इस गंभीर और जानलेवा बीमारी के बारे में उम्र की सीमाओं को दरकिनार करते हुए चहुओर आज खुलकर चर्चा की जा रही है.
एक समय था जब एच.आई.वी. पीड़ितों के प्रति लोगों का रुख खासा अपमानजनक रहता था. परिवार के लोग भी किनारा कर लेते थे. शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से एड्स पीड़ित रोगी तिल-तिल कर मरने को मजबूर होते थे. हलाकि अब परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया है, ऐसा भी कहना उचित नहीं होगा. हाँ, इतना जरूर कहा जा सकता है कि लोगों कि सोच और मानसिकता  में थोडा फर्क अवश्य आया है. उनकी संवेदना में थोड़ा विस्तार हुआ है. पीड़ितों को जिस सहानुभूति की दरकार थी, वह उन्हें मिलने लगी है. यह जनजागरूकता का प्रयास है कि आम आदमी यह समझने लगा है कि यह बीमारी भूल-चूकवश  किसी को भी हो सकती है. एक गलत सिरिंज का इस्तेमाल किसी को भी इस बीमारी कि चपेट में ले सकता है. ऐसे बहुत सारे केस देखने को भी मिले हैं जब किसी ने इलाज के दौरान अपनी जान बचाने  हेतु अस्पताल में खून चढ़वाया और अनजाने में इस खतरनाक बीमारी के चंगुल में फंस गया. इससे बचने का एकमात्र उपाय जानकारी और जागरूकता की जरूरत ही है. 
इस दिशा में किये जा रहे हर सार्थक प्रयास को मजबूत समर्थन की जरूरत है. यह केवल सरकारी प्रयासों से पूरा नहीं हो सकता, बल्कि आम लोगो को भी इस दिशा में पहल करनी होगी.