Wednesday, December 22, 2010

परिवार


एक गाड़ी है
इसमें कई कल-पूर्जे होते हैं
ये सभी एक साथ काम करते हैं
तो गाड़ी आगे बढ़ती है
बढ़ती है, बढ़ती जाती है।
जब तक इसके हर अंग
काम करते हैं साथ-साथ
गाड़ी चलती जाती है
अनवरत बढ़ती है
अपनी मंजिल की ओर!
अगर कोई कल-पूर्जा,
काम करना बन्द कर दे
तो वही गाड़ी
चल सकती है कभी?
अपनी रफ्तार से चल पाना
उसके लिए तब
मुश्किल   हो जाता है।
बिना मंजिल तक पहुंचे ही
बीच रास्ते में ही वह
रूक सकती है।
   ं ं ं ं ं
इसी तरह
परिवार एक गाड़ी है
विभिन्न सदस्य इसके
अलग-अलग कल-पूर्जे हैं
सभी के अपने हिस्से का
अपना-अपना काम है।
अगर कोई हिस्सा
अपना काम न करे
तो क्या परिवाररूपी गाड़ी
आगे बढ़ सकती है कभी?
वह भी गाड़ी की ही भांति
बीच रास्ते में ही
रूक सकती है।
आगे बढ़ना उसके लिए
मुश्किल  हो जाता है।
इस परिवाररूपी गाड़ी को
आगे बढ़ाने के लिए
जरूरी है कि
इसके सभी कल-पूर्जे
अपने हिस्से का काम
करते रहें अनवरत!
यहां एक बात
विचारणीय है कि
अगर मशीनरूपी गाड़ी का
कोई  भाग काम नहीं करता
तो उसे बदला जा सकता है
लेकिन परिवार में
ऐसा फेर बदल
सम्भव नहीं होता।
ऐसी विकृति यहां
एक दरार पैदा करती है!
खराब कल-पूर्जे
बदले नहीं जाते यहां
बल्कि उन्हें किया जाता है अलग
और पैदा हो जाता है
हंसते-खेलते परिवार में
एक बिखराव.....!

Sunday, December 19, 2010

कलाकार की साधना


बाल कहानी- मनोज कुमार

गांव की पाठशाला में मुकेश पांचवी कक्षा में पढ़ता था। वह पढ़ने-लिखने में काफी होनहार था। उसकी प्रतिभा को निखारने और एक नया आयाम देने में पाठशाला के अध्यापक रामजी दास का बहुत बड़ा योगदान था। वह जानते थे कि मुकेश एक गरीब घर का किन्तु प्रतिभावान छात्र है। अगर उसकी प्रतिभा को सही मार्ग दे दिया जाए तो वह जीवन में बहुत आगे तक जा सकता है। इसलिए वे उसे हमेशा प्रोत्साहित किया करते थे। उनके प्रोत्साहन का ही परिणाम था कि मुकेश की पढ़ाई-लिखाई में न केवल रूचि बढ़ गई थी, बल्कि परीक्षाओं में उसके अब बेहतर परिणाम दिखने लगे थे। उनके स्नेह और प्रोत्साहन को देखकर मुकेश उन्हें अपना आदर्श  मानने लगा था। 
रामजी दास जब भी मुकेश के पिता से मिलते तो उसके बारे में चर्चा करते। उससे कहते कि अपने बेटे को खूब पढ़ाओ, वह जीवन में काफी तरक्की करेगा। तब उसके पिता कहते कि इस कमरतोड़ मंहगाई के जमाने में मैं भला उसे कहां तक पढ़ा पाऊंगा? यहां तो दो जून की रोटी ही बड़ी मुश्किल  से जुटा पाता हूं।
ये बातें सुनकर मास्टर साहब को बहुत दु:ख होता था। वे सोचते थे कि मुकेश की प्रतिभा को उचित स्थान मिलना चाहिए। वे अपना अतिरिक्त समय देकर भी पढ़ाई में उसकी मदद करते थे। 
मुकेश की चित्रकारी में बहुत दिलचस्पी थी। मास्टर साहब ने देखा कि उसकी कापियों में अक्सर कई आड़ी-तिरछी लकीरें खींची हुई थी जिनका यों तो कोई मतलब नहीं था, लेकिन अगर कला का पारखी कोई व्यक्ति उन लकीरों को देखता तो अवश्य ही प्रभावित हुए बगैर नहीं रहता। वे लकीरें जैसे बहुत कुछ कहती थी। वे उसे और चित्र बनाने के लिए सदैव प्रोत्साहित करते रहते थे।
इसी दौरान पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले छात्रों के लिए जवाहर नवोदय विद्यालय में नामांकन हेतु आयोजित होने वाले प्रवेश परीक्षा का फार्म विद्यालय में आया था। मास्टर साहब ने मुकेश का फार्म भरवा दिया कि अगर उसका नामांकन नवोदय विद्यालय मे हो जाता है तो उसकी पढ़ाई की चिन्ता उसके माता-पिता को नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि वहां सरकारी खर्चे पर पढाई की सारी व्यवस्था होती थी। उन्होंने उसे उचित मार्गदर्शन  दिया और प्रवेश परीक्षा में मुकेश सफल रहा।
उसका नामांकन जिले के नवोदय विद्यालय में छठी कक्षा में हो गया। उसकी सफलता देखकर उसके माता-पिता बहुत ही खुश थे। वे मास्टर साहब को बार-बार दुआएं देते थे कि उनकी मदद से ही मुकेश का नामांकन इतने अच्छे विद्यालय में हो सका था जहां पढ़ाने के लिए उन्हें कोई अतिरिक्त खर्च नहीं देना पड़ता। 
वहां पढ़ाई के दौरान मुकेश का सामना एक नये ही वातावरण से हुआ। काफी बड़ा विद्यालय परिसर। रहने के लिए हॉस्टल और खाना-पिना, रहना सब मुफ्त। वह मन लगाकर पढ़ाई करने लगा। 
इसी बीच एक राष्ट्रीय स्तर की चित्रकला प्रतियोगिता का आयोजन एक बड़े समाचार-पत्र समूह की तरफ से किया गया था। उसके बारे में मुकेश को भी जानकारी मिली। उसकी चित्रकला में तो शुरू से ही रूचि थी। उसने अपने विद्यालय के शिक्षकों से परामर्श लिया तो कला शिक्षक ने उसका मार्गदर्शन किया। बस उसने एक बच्चे का चित्र बनाया जो आकाश को निहार रहा था, मानों वह उसकी ऊंचाइयों को छू लेना चाहता हो और उसे प्रतियोगिता में भेज दिया।
महीने भर बाद जब अखबार में प्रतियोगिता का परिणाम निकला तो मुकेश को इसकी सूचना अपने विद्यालय के प्रिंसिपल से मिली। उन्होंने खुशी-खुशी बतलाया कि उसके चित्र को न केवल प्रथम पुरस्कार मिला है बल्कि उसकी इस सफलता से देशभर में विद्यालय का भी नाम रौशन हुआ है। 
इस खबर के हफ्ते भर बाद ही गांव से मुकेश के नाम एक पत्र आया जिसे उसके पाठशाला के मास्टर साहब रामजी दास ने लिखा था। उन्होंने लिखा था-``तुम्हारे बारे में अखबार में पढ़ने को मिला। यह जानकर खुशी हुई कि तुम चित्रकला प्रतियोगिता में प्रथम आये हो। कलाकार की साधना एक-न-एक दिन अवश्य रंग लाती है। लेकिन तुम्हारी मंजिल अभी बहुत आगे है, चलते रहो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है...।´´
मुकेश ने पत्र को अपने माथे से सटा लिया। उसे ऐसा लग रहा था जैसे  इस पत्र के रूप में उसे सबसे बड़ा पुरस्कार मिल चुका था।

Thursday, December 2, 2010

विश्व एड्स दिवस के बहाने


1 दिसंबर को सारी दुनिया में विश्व एड्स दिवस मनाया जाता है. तमाम राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं इस दिन विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करती है. लोगों को जागरूक करने के लिए इस दिन कुछ नया करने का प्रयास किया जाता है. स्कूली बच्चे भी इस प्रयास में पीछे नहीं रहते. यह एक अच्छी बात है की इस गंभीर और जानलेवा बीमारी के बारे में उम्र की सीमाओं को दरकिनार करते हुए चहुओर आज खुलकर चर्चा की जा रही है.
एक समय था जब एच.आई.वी. पीड़ितों के प्रति लोगों का रुख खासा अपमानजनक रहता था. परिवार के लोग भी किनारा कर लेते थे. शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से एड्स पीड़ित रोगी तिल-तिल कर मरने को मजबूर होते थे. हलाकि अब परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया है, ऐसा भी कहना उचित नहीं होगा. हाँ, इतना जरूर कहा जा सकता है कि लोगों कि सोच और मानसिकता  में थोडा फर्क अवश्य आया है. उनकी संवेदना में थोड़ा विस्तार हुआ है. पीड़ितों को जिस सहानुभूति की दरकार थी, वह उन्हें मिलने लगी है. यह जनजागरूकता का प्रयास है कि आम आदमी यह समझने लगा है कि यह बीमारी भूल-चूकवश  किसी को भी हो सकती है. एक गलत सिरिंज का इस्तेमाल किसी को भी इस बीमारी कि चपेट में ले सकता है. ऐसे बहुत सारे केस देखने को भी मिले हैं जब किसी ने इलाज के दौरान अपनी जान बचाने  हेतु अस्पताल में खून चढ़वाया और अनजाने में इस खतरनाक बीमारी के चंगुल में फंस गया. इससे बचने का एकमात्र उपाय जानकारी और जागरूकता की जरूरत ही है. 
इस दिशा में किये जा रहे हर सार्थक प्रयास को मजबूत समर्थन की जरूरत है. यह केवल सरकारी प्रयासों से पूरा नहीं हो सकता, बल्कि आम लोगो को भी इस दिशा में पहल करनी होगी.

Thursday, November 25, 2010

प्रजातंत्र होने के मायने

एक पुरानी कहावत है कि जैसी प्रजा वैसी सरकार! इस बार बिहार विधानसभा के चुनाओं में यहाँ कि जनता ने जिस एकजुटता का परिचय दिया है वह अभूतपूर्व है. यहाँ के चुनाव परिणामों पर सिर्फ बिहार कि ही नहीं बल्कि पूरे देश - दुनिया की निगाहे टिकी हुई थी. और परिणाम भी ऐसा आया कि हारने वाले तो दूर जीतने वाले भी आश्चर्यचकित हैं. कहना न होगा कि यह एक ऐतिहासिक फैसला है. बिहार की जनता का फैसला है.
नीतीश कुमार की नई और मौलिक सोच एवं विकसित बिहार के सपने ने उन्हें सब से अलग किया और जीत का सेहरा पहनाया. सो, बधाई मिलनी लाजिमी है. मिलनी भी चाहिए. एक सामान्य मजदूर से लेकर आम घरेलु महिला तक , छात्र तबका, व्यवसाई वर्ग सभी के खिले हुए चेहरे बता रहे हैं कि उनकी चाहत क्या थी?
243 सीटों में से 206 सीट जीतना अपने आप में एक करिश्मा है. ऐसा यहाँ के इतिहास में संभवतः कभी नहीं हुआ. यह प्रचंड बहुमत सिद्ध  करता है कि विकास के मुद्दे पर सब एकजुट हैं.
लोगों ने अपना काम कर दिया. अब उनकी आशाओं पर खरा उतर कर दिखाना सत्ता पार्टी का काम है. आगामी पांच वर्षों में बिहार विकास कि एक नई इबारत लिखेगा, ऐसा सबको भरोसा है. इसी भरोसे कि बदौलत एन डी ए के खाते में यह जीत आई है.  ऐसी जीत से उत्साहित जरूर होना चाहिए, हां, उन्हें मद से दूर रहना होगा.
लालू यादव और रामविलास पासवान को इस जीत पर शक हो रहा है. उनका कहना है कि वे इसकी जांच करेंगे. शायद वे भूल रहे है कि ऐसी ही जीत व्यक्तिगत तौर पर कभी उन्हें भी मिली थी. तब उन्हें अपनी जीत पर संदेह नहीं हुआ था. सत्ता के मद में अंधे होने पर यह बात भूल जाती है कि जो कुर्सी उन्हें जनता कि सेवा करने के लिए मिली है, वह चिरस्थाई नहीं है. अगर वे अपनी राह से भटकेंगे तो यही जनता उन्हें सत्ता से बेदखल भी कर सकती है. यही प्रजातंत्र के मायने है.

Wednesday, November 10, 2010

शिक्षा दिवस - 10 नवंबर

मौलाना अबुल कलाम आजाद जयन्ति के अवसर पर राजधानी पटना में आयोजित शिक्षा दिवस समारोह में यहां के ख्यातिप्राप्त गणितज्ञ श्री आनन्द को सम्मानित किया जाना हर्ष का विषय है। सुपर थर्टी के संस्थापक संचालक  श्री आनन्द जैसे दुर्लभ व्यक्तित्व विरले ही मिलते हैं, जिन्होंने तन-मन-धन से साधनविहीन छात्रों के लिए अपने आप को समर्पित कर दिया हो। उनकी सुपर थर्टी संस्था आईआईटीयन फैक्ट्री बन चुकी है जो पिछले कुछ वर्षों  से शत-प्रतिशत परिणाम दे रही है।
साधनविहीन मेधावी छात्रों को नि:शुल्क आई.आई.टी. की तैयारी


कहना न होगा कि ऐसे व्यक्तित्व किसी पुरस्कार के मोहताज नहीं होते, अपितु पुरस्कार ऐसे मौकों पर खुद ही पुरस्कृत होता है। श्री आनन्द का यह वक्तव्य कि वे अब पांचवी कक्षा के बाद से ही बच्चों को पढ़ाने का कार्य करना चाहते हैं, निश्चय ही उन गरीब बच्चों के लिए एक शुभ संकेत है जो बचपन में ही मजबूरी में अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं। 

अपने छात्रों के साथ ज्ञानदाता आनंद : सफलता के क्षण

बच्चों के भविष्य निर्माण में शिक्षकों का ही महत्वपूर्ण योगदान होता है। समाज में श्री आनन्द जैसे शिक्षक एक मिसाल हैं जिन्होंने आज के अंधे व्यावसायिक युग में नि:स्वार्थ भाव से कार्य कर जाने कितने बूझते चिरागों को न केवल रौशन किया बल्कि उन्हें मुख्यधारा में शामिल कर प्रतिष्ठित भी किया। सचमुच ऐसे व्यक्तित्व वन्दनीय हैं।

मुख्यमन्त्री अक्षर आंचल योजना


शिक्षा दिवस का सम्मान 
नारी के आँचल में अक्षर। 
मां-बेटी दोनों साक्षर।।

पढ़ी-लिखी हर बहना
घर-घर की है गहना ।।

कुछ ऐसे ही नारों के साथ शुरू हुई थी, बिहार में महिला साक्षरता बढ़ाने की एक नई पहल।
राज्य की 15 से 35 आयुवर्ग की 40 लाख असाक्षर महिलाओं को साक्षर बनाने की साल भर चली महत्वाकांक्षी योजना अक्षर आंचल ने आखिरकार महिलाओं में शिक्षा के प्रति तो एक ललक बढ़ा ही दी। भले ही यह योजना कुछ अच्छी-बुरी समालोचनाओं के साथ विगत 8 सितम्बर को अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस के अवसर पर समाप्त हो गई हो- मगर इसका असर उन परिवारों में पीढ़ियों तक जाएगा जिनकी महिलाओं ने इस योजना का लाभ उठाकर पढ़ना-लिखना सीख लिया है।

10 नवंबर को शिक्षा दिवस के अवसर पर मानव संसाधन विकास विभाग द्वारा आयोजित समारोह में इस योजना में समर्पित शिक्षक अक्षरदूतों, साधनसेवियों व कार्यकर्ताओं को सम्मानित किया जाना एक अच्छी पहल है। इससे कर्तव्यपरायण लोगों में एक नये उत्साह का संचार होगा और अन्य लोग भी कुछ अच्छा करने के लिए प्रेरित होंगे।  
पश्चिम चंपारण में जिला स्तर पर चयनित
 बेस्ट के आर पी - ओबैदुर्रहमान  
मधुबनी-पिपरासी  के दियारा क्षेत्र के दुर्गम इलाकों में अक्षर दूत
 एवं नवसाक्षर महिलाओं के साथ के.आर.पी. संजय कुमार 





Sunday, October 31, 2010

बिहार की नई तक़दीर


बढ़ता वोट, खामोश नियंता
बिहार विधानसभा चुनाव के चरण दर चरण पूरे होते जा रहे हैं. सबसे अच्छी बात यह सामने आ रही है कि मतदाताओं में खासकर महिला मतदाताओं में मतदान के प्रति एक विशेष जागरूकता दिख रही है. उन्हें धूप में घंटों खड़े होकर मतदान देने से कोई परहेज नहीं हो रहा.

तीसरे चरण में अति पिछड़े दियारा और रेता जैसे क्षेत्रों में भी जहाँ पहले मतदाता हिंसक वारदातों को लेकर बूथ तक आने में भी परहेज करते थे, अब सुरक्षा मिलने पर खुलकर मतदान के लिए सामने आ रहे हैं. इधर हाल के कुछ वर्षों में चुनाव आयोग ने मतदान के लिए सुरक्षा के जो पुख्ता इंतजाम किये हैं, वह निश्चय ही काबिलेतारीफ है. इस सुरक्षा भावना ने आम आदमी के अन्दर के डर को ख़त्म कर दिया है, और वे सही मायने में इस चुनाव में राज्य के निति नियंता बनकर सामने आये हैं. पश्चिम चंपारण के दियारा बहुल क्षेत्रों में 60 प्रतिशत मतदान होना एक उदाहरण है. शहरी वोटरों में अभी भी थोड़ी और जागरूकता की जरुरत है.
पिछले चुनावों के मुकाबले इस बार बढ़ रहा वोटिंग प्रतिशत और आम मतदाताओं कि ख़ामोशी का राज तो मतगणना के बाद ही पता चलेगा. तथापि इस बार इतना तय है कि बिहार अपनी तक़दीर की नई इबारत खुद लिखने को पूरी तरह से तैयार है.

Friday, October 22, 2010

लोकतंत्र का महापर्व


दोषी कौन?

बिहार में इन दिनों लोकतंत्र का सबसे बड़ा महापर्व चल रहा है. विधानसभा चुनाव 21 अक्तूबर से शुरू होकर 20 नवम्बर तक कुल 6 चरणों में पूरे होंगे. मतों की गिनती 24 नवम्बर को होगी, तभी पता चलेगा की राज्य में किसकी सरकार बनेगी? किसी एक पार्टी अथवा गठबंधन को बहुमत मिलती है या नहीं?
एक माह से अधिक समय तक चलने वाले इस रस्साकस्सी में सरकार चाहे जिस पार्टी की भी बने- इतने दिनों तक यहाँ आम जन-जीवन अस्त-व्यस्त ही रहेगा. जनता के खर्चे से आयोजित होने वाले इस महापर्व में परेशानी भी आम जनता को ही झेलनी पड़ेगी. चाहे वह यातायात की असुविधा हो या दैनिक उपभोक्ता सामग्रियों की किल्लत की, जब तक चुनाव संपन्न नहीं हो जाता- तब तक धैर्य धारण करना ही पड़ेगा.
बहरहाल सरकार तो बनानी है न! सरकार चुनने की जिम्मेवारी भी जनता की ही है. भले ही कुछ लोग इसे मात्र अपने पड़ोसियों का कर्तव्य समझें और मतदान के दिन घरों से बाहर न निकले. आम दिनों में आये दिन सरकार को कोसने वाली जनता को इस महत्वपूर्ण फैसले की घडी में अपनी भागीदारी को सुनिश्चित कर लेनी चाहिए.
21 अक्तूबर को पहले चरण का चुनाव संपन्न होने पर न्यूज चैनलों में यह खबर आई की अपने आप को बुद्धिजीवी मानने वाले तथाकथित संभ्रांत लोग मतदान करने नहीं आये. हालांकि राज्य में मतदान का औसत प्रतिशत पचास से अधिक रहा. लेकिन इसमें अधिक योगदान ग्रामीण क्षेत्र के मतदाताओं का रहा, बनिस्पत शहरी क्षेत्र के मतदाताओं के. सवाल उठता है की आख़िरकार अपने कीमती मत का प्रयोग करने में ऐसी अरुचि क्यों? चुनाव कोई साधारण आयोजन नहीं है. यह एक मत्वपूर्ण फैसले की घडी है. अगर हम दो घंटे लाइन में खड़े होने के डर से मतदान करने नहीं जाते है तो फिर क्या हक़ बनता है पांच साल तक सरकार को कोसते रहने का?
चाहे आप बस में सफ़र कर रहे हों या ट्रेन में- किसी चौक-चौराहे पर खड़े हो या बाजार में राशन की दुकान पर- वहां कुछ ऐसे तेज-तर्रार लोग अवश्य मिल जायेंगे जो अपनी हर असुविधा के लिए सरकार को ही कटघरे में खड़े करने की कोशिश करते है. लेकिन जब सरकार चुनने की बारी आती है, तो इस महत्वपूर्ण समय में घर से बाहर निकलने में कतराते हैं और इसे ज्यादा तवज्जो नहीं देते. फिर असली दोषी कौन हुआ?

Wednesday, October 6, 2010

पदक की ललक में

  • कहानी- मनोज कुमार
रात्रि का अंतिम पहर अलविदा कहने को आतुर था. सुबह की लालिमा अभी फिजां में बिखरी  नहीं थी. सारा गाँव अभी निद्रा में डूबा हुआ था. ऐसे में गाँव से चार किलोमीटर दूर नदी तट पर एक परछाईं तेजी से भागी चली जा रही थी.
वह था गाँव का एक किशोर बालक रामा- जो प्रतिदिन सुबह-सवेरे नीम अँधेरे में उठकर दौड़ लगाने निकल पड़ता था. दरअसल उसे एक तेज धावक बनना था. उसकी बचपन से एक ही तमन्ना थी, कि उसे देश का ही नहीं, बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा धावक बनना है. इसके लिए उसे जितनी मेहनत करनी पड़ेगी, वह करेगा. वह देश और दुनिया में अपना नाम रौशन करेगा. एशियाड, ओलम्पिक, राष्ट्रमंडल खेलों जैसी बड़ी स्पर्धाओं में देश का प्रतिनिधित्व करके पदक जीतेगा.
इसमें कोई शक नहीं था कि वह एक बेहतरीन धावक था. इसका प्रमाण था - उसका अब तक का शानदार रिकार्ड!
उसने विद्यालय स्तर से लेकर जिले और राज्य स्तर तक सैकड़ों  गोल्ड मेडल जीते थे. उसका जूनून था कि उसे हर हाल में फर्स्ट आना है. उसके नीचे उसे कुछ भी मंजूर नहीं था.
वह तेजी से दौड़ता जा रहा था- और उसके मानस पटल पर पिछली एक घटना कि यादें ताज़ा हो आई. पहली बार उसे राज्य की तरफ से एक राष्ट्रीय स्पर्धा में  भाग लेने का मौका मिला था. और दुर्भाग्य  की  बात थी कि  वह उसमे पहला स्थान पाने से चूक गया. दूसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा. यह उसे गवारा नहीं हो रहा था. अगली बार अपने एक मित्र की सलाह पर वह एक ऐसा काम कर बैठा, जिसने उसे चयन समिति के कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया. किसी ने उस पर प्रतिरोधक  दवा  के सेवन का आरोप लगाया था. जांच में यह आरोप सही पाया गया था. चयन समिति ने उसे एक साल के लिए प्रतिस्पर्धा में भाग लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया. वह प्रतियोगिता में भाग लिए बिना घर वापस लौट आया.
अब वह पिता के कटघरे में खड़ा था. उन्होंने एक ही बात कही- "पदक का क्या मोल? बेईमानी की जीत से तो ईमानदारी की हार भली!"
स्वर्ण पदक की ललक में वह क्या कर बैठा था? इसकी जरुरत क्या थी? उसे क्यों अपने ऊपर भरोसा नहीं रहा था? एक छोटी सी भूल के लिए उसे कितनी फजीहत झेलनी पड़ी थी.
इन एक सालों में उसने लगातार परिश्रम ही किया था. कठोर परिश्रम... !
जो होना था, वो हो चूका था. अब उसने निर्णय ले लिया था. 
"मुझे हर हाल में अपने-आप को सिद्ध करना है. अपने लिए...देश के लिए...उसकी प्रतिष्ठा के लिए, मेहनत ही मेरा मूलमंत्र होगा."
और मन में यह विचार आते ही उसके क़दमों में एक तेजी आ गयी. ऐसा लग रहा था जैसे मंजिल काफी करीब आ गयी हो. सहसा एक नए उत्साह से वह भर उठा. वातावरण में चिड़ियों का कलरव गुंजायमान  हो उठा था. एक तरफ वह पवन की गति से भागा जा रहा था, दूसरी तरफ एक नया सूर्योदय आशा की किरणें चारों और फैला रहा था.




Sunday, October 3, 2010

चंपारण के गाँधी- पं. प्रजापति मिश्र

११२ वीं जयंती पर विशेष
सर्वविदित है कि गाँधी जी ने अपना सत्याग्रह आन्दोलन चंपारण की धरती से शुरू किया था. उन्हें यहाँ बुलाने का श्रेय राजकुमार शुक्ल को जाता है जिन्होनें अपने दो अन्य साथियों शेख गुलाब एवं शीतल राय के साथ लखनऊ जाकर कांग्रेस के 31 वें अधिवेशन में उन्हें यहाँ आने का आमंत्रण दिया था. अप्रैल 1917 में गाँधी जी चंपारण आये और यहाँ नीलहे किसानों की दुर्दशा देखी. और यही चंपारण सत्याग्रह की बुनियाद बना.
यहाँ उनकी कार्य योजनाओं को जमीनी रूप देने में बहुत सारे स्थानीय नेताओं का हाथ है. जिनमे एक प्रमुख थे- पं. प्रजापति मिश्र.
 चंपारण के गाँधी- पं. प्रजापति मिश्र
इसे एक संयोग ही माना जायेगा की  2 अक्तूबर को जिस दिन देश के दो महान नेताओं महात्मा गाँधी एवं लालबहादुर शास्त्री का जन्म हुआ, ठीक इसी तारीख को  1898 में चनपटिया (आज के पश्चिम चंपारण का एक प्रखंड) के गांव रानीपुर में प्रजापति मिश्र का भी जन्म हुआ.
गाँधी जी जब चंपारण आये तब ये 19 वर्ष के युवा थे. गाँधी जी के विचारों से ये बेहद प्रभावित थे.
1920 में जब असहयोग आन्दोलन शुरू हुआ तो ये पटना के बी.एन.कालेज में पढाई कर रहे थे. इन्होनें अपनी बी.ए. अंतिम वर्ष की परीक्षा छोड़ दी और आन्दोलन में कूद पड़े. अपने स्तर से इन्होने कई ग्रामसभाएं गठित की. 1923  ई. में उन्हें बेतिया नगरपालिका का उपसभापति चुना गया. 1928 की एक घटना थी. गाँधी जी के अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रम में भाग लेने तथा दलितों के साथ भोजन करने के कारण ससुराल में उनका बहिस्कार तक कर दिया गया. लेकिन उन्होंने इसकी जरा भी परवाह नहीं की. वे जिस रह पर चल पड़े थे, उसमे कोई भी विध्न-बाधा उन्हें अपने इरादों से डिगा नहीं सकती थी. विभिन्न आंदोलनों में संलिप्त होने के कारण कई बार उन्होंने लाठियां खाई और गिरफ्तार हुए.
गाँधी जी देश को आर्थिक आधार एवं स्वावलंबन प्रदान करने के लिए कई तरह के ग्रामोद्योग कार्यक्रम एवं शिक्षा के लिए बुनियादी विद्यालय स्थापित करना चाहते थे. प्रजापति मिश्र ने इस कार्य हेतु कुमारबाग के निकट 1936 में लगभग 100 बीघे जमीन में वृन्दावन आश्रम की स्थापना की. उनके प्रयासों से अनेक बुनियादी विद्यालय खोले गए. राजकीय बुनियादी विद्यालय वृन्दावन (कुमारबाग) को देश का प्रथम बुनियादी विद्यालय होने का गौरव प्राप्त है. इसकी स्थापना 7 अप्रैल 1939 को हुई थी. इन्ही के प्रयासों से वहां शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय भी खुला.
गाँधी सेवा संघ का पांचवा अधिवेशन इन्हीं के प्रयासों से 2 से 9 मई तक वृन्दावन में आयोजित हुआ, जिसके मुख्य कर्ता-धर्ता वे स्वयं थे. इस अधिवेशन में गाँधी जी के अलावा काका कालेलकर, खान अब्दुल गफ्फार खां, राजेंद्र प्रसाद, विनोबा भावे, जे.बी.कृपलानी, सरदार पटेल, श्रीकृष्ण सिंह , जाकिर हुसैन, अनुग्रह नारायण सिंह इत्यादि भी पधारे थे.
9 अगस्त 1942 को भारत छोडो आन्दोलन के समय इन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया गया.  देश को आजादी मिलने के लगभग छः वर्षों के बाद 4 मई 1953 को इनका देहावसान हो गया. वस्तुतः देखा जाये तो चंपारण की धरती पर यहाँ के विकास के लिए उन्होंने जो कुछ भी योगदान किया, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है. इसी कारण उन्हें आज "चंपारण का गाँधी" के उपनाम से भी पुकारा जाता है.  बेतिया के निकट इनके नाम पर प्रजापति नगर नाम का एक हाल्ट भी है. २ अक्तूबर को महात्मा गाँधी एवं लालबहादुर शास्त्री के साथ-साथ जिले  में प्रजापति मिश्र की भी जयंती मनाई जाती है.
  • मनोज कुमार

Saturday, October 2, 2010

गांधी- अहिंसा का सजग प्रहरी

२ अक्तूबर पर विशेष
सत्य और अहिंसा - सबसे बड़ा मानवमूल्य
दो दिन पूर्व ही छः दशक से चले आ रहे अयोध्या विवाद का चिर प्रतीक्षित फैसला अदालत द्वारा सुनाया गया. सारे देश में सुरक्षा के कड़े इंतजाम थे. फैसले को लेकर एक आशंका और भय का सा वातावरण बना हुआ था. चूँकि मामला धर्म से जुड़ा हुआ था, इसलिए बीती घटनाओं को देखकर हर स्तर पर सतर्कता बरतने की कोशिश की गई. बहरहाल इसे लेकर कहीं कोई हिंसक वारदात नहीं हुई और शांति व सौहार्द बना रहा.
कुछ रास्ते कठिन होते हैं. अहिंसा के रूप में गांधीजी ने भी एक कठिन राह चुना था- उनका विरोध भी हुआ. लेकिन वे मोहन दास से गांधी बने तो सिर्फ इस कारण की वे अपने सिद्धांतों पर अंत तक डटे रहे. आजादी की कठिन लड़ाई सत्याग्रह के बूते लड़कर उन्होंने सिद्ध किया की हिंसा से हम वह स्थाई जीत नहीं प्राप्त कर सकते, जो अहिंसा के बलबूते पर कर सकते है.
अहिंसा का सजग प्रहरी 
दरअसल देखा जाए तो गांधीजी का यह फार्मूला मानव जीवन और मानव मूल्यों को संपोषित करते हुए उसे एक ऊंचाई तक ले जाता है. आज इसकी बेहद जरुरत है. दंगे और फसाद आम समाज में कोई नहीं चाहता. कुछ स्वार्थ से प्रेरित लोग ही इसकी बीज बोने का काम करते हैं. वे लोगों को आपस में लड़ाते हैं, खून की होली खेलते है और अपनी स्वार्थ की रोटियां सेंकते हैं.

समाज में प्रेम, शांति और सद्भाव बनाए रखने के लिए अहिंसा ही एकमात्र मार्ग है. इसी में जनकल्याण निहित है.

कुछ वर्ष पूर्व एक फिल्म आई थी- लगे रहो मुन्नाभाई.  काफी लोकप्रिय हुई थी. इसने गांधीवाद के धूमिल पड़ते विचारधारा को गांधीगिरी के आधुनिक नारे में बदल दिया. जहाँ यह सन्देश मिलता है की गांधी के सिद्धांतों पर चलकर ही सही मायनो में अपने लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है. गांधीगिरी के ऐसे प्रयासों को आगे बढ़ाने की जरुरत है.

Friday, October 1, 2010

अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस - 1 अक्तूबर 2010

जीवन की संध्या बेला में
आज सुबह अख़बार पढ़ते हुए एक संदेश पर जाकर नजर ठिठक गई. पता चला आज एक अक्तूबर है.और इस दिन दुनिया भर में अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस मनाया जा रहा है.
हम सब अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में इतने व्यस्त हो चले हैं कि आस पास कि छोटी-छोटी घटनाओं को दरकिनार करते चलते है. बड़े- बुजूर्गों कि अहमियत किसी पुरानी गाड़ी कि भांति कमतर होती जा रही है. किसी के पास सोचने का भी वक्त नहीं है. ये दिवस हमें एहसास दिलाते हैं कि, जरा ठहरें. हमारे आस-पास जो कुछ अनमोल है, उसकी क़द्र करना सीखें- अन्यथा एक दिन हमारा भी वही हश्र होगा.
मुफ्त में बुजूर्गों को सम्मान कि औषधि देना भी हम पर भारी गुजरता है. देखने सुनने में आता है कि विदेशों में बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तो माता-पिता को ओल्ड एज होम में भेज देते है. उनकी देखभाल करना पसंद नहीं करते. यह कैसी मानवीयता और कैसा धर्म?
भारत अपनी संस्कृति का रक्षक और परम्पराओं का पोषक देश माना जाता है.  यह श्रवण कुमार का देश है.  यहाँ बड़े-बुजूर्गों को परिवार में अहमियत दी जाती है. लेकिन यहाँ भी मान्यताएं दरक रही है. हम अपने मूल्यों को कहीं विस्मृत कर रहे हैं. जिसने कभी हमें पुष्पित-पल्लवित किया, ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया- फिर उनके जीवन कि संध्या बेला में अपनी बारी आने पर बेरुखी दिखा कर कौन सा सुख हासिल कर सकते हैं?

Wednesday, September 29, 2010

रिश्ता

  • कहानी -  मनोज कुमार

मिसेज मेहरा आज कई दिनों के बाद अपनी पुरानी सहेली विमला के घर आई थी. पहले वे अक्सर यहाँ आया करती थी मगर इस बार कई दिनों के बाद आना हो रहा था.
दोनों ड्राइंगरूम में बैठी बातें कर रही थी तभी विमला की बड़ी बेटी पूनम वहां चाय की ट्रे लेकर आ गई. पूनम ने मिसेज मेहरा का हाथ जोड़कर अभिवादन किया तो वे खुश रहने का आशीर्वाद देकर विमला से बोली- "तुमने पूनम की शादी के बारे में क्या सोचा है?"
"सोचना क्या है?" विमला ने कहा-"अभी तो यह बी.ए. कर रही है. कहती है इसके बाद फैशन डिजायनिंग का कोर्स करूंगी. शादी के लिए इसके पापा ने दस लाख का फिक्स डिपाजिट करा ही रखा है तो हमें कोई चिंता नहीं है."
मिसेज मेहरा चाय का एक घूंट लेकर थोडा ठहरकर बोली- "विमला, बुरा न मानों तो इसी सम्बन्ध में मैं तुमसे एक बात कहना चाहती हूँ."
"तो कहो न. चुप क्यों हो?"
"तुम तो जानती हो क़ि पूनम को हमारे घर में सभी अच्छी तरह जानते हैं और पसंद भी करते हैं. मैं चाहती हूँ क़ि हमारी यह दोस्ती रिश्तेदारी में बदल जाये?"
"क्या मतलब?" विमला ने चौंक कर कहा.
"मैं अपने बेटे सुधाकर के लिए तुमसे पूनम का हाथ मांगती हूँ." मिसेज मेहरा बोली.
जबकि उनकी बात सुनकर विमला ने बदले स्वर में कहा- "बुरा मत मानना प्रभा, दरअसल पूनम के पापा तो उसका विवाह किसी ऊँचे रसूख वाले घराने में करना चाहते हैं. वे चाहते हैं क़ि उनकी बेटी जहाँ जाए वहां राज करे. वे किसी साधारण परिवार में उसका रिश्ता नहीं करना चाहेंगे. फिर हमारे और तुम्हारे स्टेटस में अंतर भी तो कितना है..."
मिसेज मेहरा को अपनी सहेली से ऐसे किसी जवाब क़ि अपेक्षा नहीं थी. वह एकाएक कुछ कह नहीं सकी जबकि विमला ने कहना जारी रखा था- "तुम्हारे पति एक सामान्य शिक्षक हैं और सुधाकर भी तो अभी कुछ करता नहीं... पता नहीं आगे चलकर वह कुछ करेगा भी या नहीं...?"
"सुधाकर सिविल सर्विस क़ि तयारी कर रहा है." मिसेज मेहरा से रहा नहीं गया तो वह बोल उठी- "और तुम तो जानती ही हो क़ि पूनम और वह दोनों एक दुसरे को पसंद भी करते हैं."
"आजकल के ज्यादातर लड़के सिविल सर्विस की तैयारी करते ही देखे जाते हैं." विमला थोडा हंसकर बोली- "मगर सफल कितने होते हैं? लाखों में चंद गिने हुए कुछ खुशकिस्मत लोग...! और रहा सवाल इन दोनों क़ि पसंद का, तो तुम यूं क्यों नहीं कहती क़ि तुम्हारी नजर उन दस लाख रुपयों पर है जो पूनम के साथ उसके दहेज़ में जायेंगे!"
मिसेज मेहरा को उम्मीद नहीं थी क़ि उसकी खास सहेली उससे इस तरह का बर्ताव भी कर सकती है. उसे विमला क़ि बातें सख्त नागवार गुजरी. स्वयं को अपमानित सी महसूस करती हुई वह वहां से चली गई.
जबकि दरवाजे के पीछे खड़ी होकर सारा वार्तालाप सुन रही पूनम को अपनी माँ का यह व्यवहार बहुत ही बुरा लगा. उसे अपनी माँ पर काफी क्रोध आ रहा था. आखिर क्यों उसने उनसे इस तरह क़ि बाते कही? यह सच था वह सुधाकर को पसंद करती थी, मगर इंकार करने के और भी तो तरीके होते हैं. इस तरह उनका अपमान करना क्या उचित था? शायद अब वे दुबारा यहाँ कभी न आयें.
फिर इस घटना को हुए काफी समय बीत गया.
इस बिच पूनम ग्रेजुएशन की पढाई पूरी कर फैशन डिजायनिंग के कोर्स में दाखिला ले चुकी थी. घर वाले उसके लिए ऊँचे घराने के किसी योग्य वर की तलाश में जुट चुके थे.
एक दिन अख़बार में खबर छपी क़ि उनके शहर से पहली बार किसी ने आई.ए.एस. क़ि परीक्षा उत्तीर्ण की थी. मालूम हुआ क़ि वह कोई और नहीं बल्कि सुधाकर ही था जो क़ि अपने अंतिम प्रयास में फाइनेली सिलेक्ट हो गया था. उसके घर पर बधाई देने वालों का ताँता लग गया था.
उसी शाम पूनम ने अपनी माँ को पापा से कहते सुना- "सुनते हो, मिसेज मेहरा का लड़का सुधाकर आई.ए.एस. हो गया है. वही जो एक दिन पूनम का हाथ मांगने हमारे घर आई थी. मैं आज ही यह रिश्ता लेकर उनके पास जा रही हूँ."
जब पूनम ने ऐसा सुना तो उसे यकीन नहीं हुआ क़ि उसकी माँ ऐसा कह रही है. जिसने खुद एक दिन इस रिश्ते को तोड़ दिया था. आज वह इस रिश्ते को फिर से जोड़ने का प्रयास कर रही थी सिर्फ इसलिए क़ि सुधाकर अब कोई सामान्य प्रतियोगी नहीं, बल्कि आई.ए.एस. बन चुका था.
पूनम आज पहली बार किसी बात को लेकर अपनी माँ के विरोध में खड़ी थी- "माँ, अब तुम वहां मत जाओ...."
"क्यों?" विमला ने हैरानी से पूछा.
पूनम थोड़ी देर तक चुप रही. फिर नपे तुले शब्दों में बोली- "माँ, जिस सम्बन्ध को तुम पहले ही तोड़ चुकी हो उसे दुबारा लेकर तुम्हारा वहां जाना ठीक नहीं."
"ओह." विमला ने हंसकर कहा-"बेटी, तुम दुनिया के रीती-रिवाजों को जानती नहीं. जिसे गरज पड़ती है, उसे थोडा झुकना ही पड़ता है. सब ऐसा ही करते हैं. यही दुनिया का चलन है."
पूनम माँ के बदले हुए रूप को देख रही थी. माँ के जवाब का उस पर कोई असर नहीं हुआ था. कदाचित वह जान रही थी क़ि वहां से क्या जवाब मिलेगा?
रात को जब माँ मिसेज मेहरा के यहाँ से लौटी तो उनका चेहरा बता रहा था क़ि उन्हें अपने मिशन में कामयाबी नहीं मिली है. खाने के समय वे पापा से कह रही थी - "लड़का आई.ए.एस. बन गया है तो मिस्टर और मिसेज मेहरा के तो पाँव ही जमीं पर नहीं हैं. जब मैंने उन्हें पुराने रिश्ते का ध्यान दिलाया तो वे कहने लगी क़ि उनके पास बड़े-बड़े रिश्तों के आफर आ रहे हैं. लोग पच्चीस लाख नगद और एक कार देने क़ि बात कर रहे हैं."
वे काफी देर तक इस मामले को लेकर नुक्ताचीनी करते रहे और अन्दर दरवाजे से टेक लगाये पूनम नम आँखों से उन्हें सुन रही थी.

प्रकाशित - शुभ तारिका





Tuesday, September 28, 2010

ये सपना है

बी.बी.सी. लंदन से नई सहस्त्राब्दी के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम -
"ये सपना है" में 29 जनवरी 2000 को प्रसारित

"नई सहस्त्राब्दी में मेरा सपना है- एक सुन्दर, स्वस्थ और आतंक रहित समाज के निर्माण की. आज समाज में चारो ओर भय और आतंक का राज कायम है. इससे क्षेत्रीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवीय भावनाएं आहत हुई है. आखिर मानव ही आज अपनी मानवता को भूल गया है और पशुओं की मानिंद निर्विकार और भावशून्य हो गया है. भय और आतंक के इस राज से किसे क्या मिलने वाला है?
आज मनुष्यों में संवेदनहीनता बड़ी हद तक बढ़ गयी है. संवेदनशीलता से दूर-दूर तक उनका कोई नाता नहीं है. मानव में संवेदना का होना काफी जरूरी है. इस संवेदनशीलता के अभाव में मनुष्य अपने रिश्तों, संबंधों व नैतिक विचारों को कभी मजबूत नहीं कर सकता है, उसमे दरारें जरूर डाल सकता है.
मानवीयता की कमी और घोर संवेदनहीनता के कारण मनुष्य का रूप विकृत हो चला है. एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से डर कर रहना पड़ता है. क्या जीवन इसी का नाम है? डर-डर कर और सहम कर जीना ही क्या वर्तमान में जीवन की गति है? ऐसा न हो, इसलिए हमें अपने विचारों में कोमलता, संवेदनशीलता और मानवीयता के प्रति सम्मान रखना होगा. तभी इस धरती पर एक मनुष्य दुसरे किसी अनजान जगह पर नए लोगों के बीच उल्लास और भयमुक्त होकर रह सकेगा ! "
- मनोज कुमार

हास्य नाटिका - "असली नेता"

पात्र परिचय-
१. नेताजी- विधायक बनने का ख्वाहिशमंद एक चुनावी उम्मीदवार
२. रामभरोसे- नेताजी का परिचित एक व्यक्ति
*****
(मंच पर रामभरोसे एक सामान्य ग्रामीण वेशभूषा में खड़ा है. उसकी राजनीति में काफी दिलचस्पी है क्योंकि उसके परिचित नेताजी विधानसभा का चुनाव लड़ने की तयारी में लगे हुए है.)

रामभरोसे- "आजकल जिसे देखो वही चुनाव लड़ने की बात करता है. जैसे यही सबसे फायदे का धंधा बन गया हो. न जाने इस देश का क्या होगा? जहाँ सब केवल अपना ही फायदा देखते है. अब नेताजी को ही देख लो, पिछली बार भी चुनाव लड़े थे. जमानत जब्त हो गई थी. फिर भी सबक नहीं लिया. अब दुबारा चुनाव लड़ने की तयारी में हैं."

रामभरोसे की बात समाप्त होते ही मंच पर धोती-कुरता और गाँधी टोपी पहने नेताजी का आगमन होता है.
रामभरोसे- "राम-राम नेताजी."
नेताजी- "राम-राम भाई. राम-राम."
रामभरोसे- "आज सुबह-सबेरे कहाँ चल दिए धोती उठाई के, नेताजी?"
नेताजी- "अरे भाई रामभरोसे, हम चले हैं अपने क्षेत्र में जनसंपर्क बनाने."
रामभरोसे- (अनजान बनते हुए)-"जनसंपर्क? ई जनसंपर्क का होता है नेताजी?"
नेताजी- "अरे मुरख. तू रहेगा गंवार का गंवार ही. तू इतना भी नहीं जानता. जनसंपर्क का माने होता है पब्लिक रिलेशन. यानि लोगों से मिलना-जुलना. उनका हाल-चाल लेना और उनकी सुविधा का ख्याल रखना. तभी तो कोई हमें वोट देगा."
रामभरोसे- "अच्छा! (सर हिलाते हुए) तो ई होता है जनसंपर्क."
नेताजी- "हाँ.तुझे मालूम है न की चुनाव फिर से होने वाला है."
रामभरोसे- "वो तो ठीक है. लेकिन पिछली बार तो आपकी जमानत भी नहीं बच पाई थी."
नेताजी- "लेकिन इस बार मैं रिकार्ड मतों से जीतूँगा."
रामभरोसे- "वो कैसे?"
नेताजी-"मैं इस बार ऐसा जबरदस्त प्रचार अभियान चलाऊंगा की सब चरों खाने चित जा गिरेंगे. उठने का मौका भी नहीं दूंगा ससुरन को. इस बार जीत मेरी ही पार्टी की होगी."
रामभरोसे- "आप तो रोज पार्टी ही बदलते रहते हैं नेताजी. वैसे आप अभी हैं किस पार्टी में?"
नेताजी- "देखो, मैंने टिकट तो माँगा था हाथी वालों से, लेकिन मेरी असली क़द्र जानी गैंडा छाप वालों ने.इसलिए मैं उस पार्टी में शामिल हो गया."
रामभरोसे- "गैंडा छाप?"
नेताजी- "हाँ, गैंडा छाप!"
रामभरोसे- "ई कोई नई पार्टी है का नेताजी? पहले तो कभी इसका नाम नहीं सुना.?"
नेताजी-"कोई बात नहीं. अब सुन लिया न!"
रामभरोसे- "हाँ."
नेताजी- "अगर कोई पार्टी इस बार चुनाव जीतेगी, तो वो सिर्फ गैंडा छाप ही होगी. जानते हो क्यों?"
रामभरोसे- "क्यों?"
नेताजी- "वो इसलिए की गैंडा कभी भी हार मानना नहीं जानता. वो इसलिए हार नहीं मानता क्योंकि उसकी खाल काफी मोटी होती है."
रामभरोसे- "हो-हो-हो...!"
नेताजी- "अब हँसना बंद कर बुरबक. ज्यादा दाँत मत दिखा. मैंने कुछ गलत कह दिया क्या?"
रामभरोसे- "नहीं नेताजी. आप भला कुछ कैसे कह सकते है? गैंडे की खाल तो सचमुच इतनी मोटी होती है की उसमे भाला भी मारो तो नहीं घुसता."
नेताजी- " तभी तो मैं कहता हूँ की इस बार मेरी जीत पक्की है."
रामभरोसे- "अच्छा नेताजी, एक बात बताइये. जब आप जीत कर मंत्री बन जायेंगे, तो सबसे पहला काम क्या करेंगे?"
नेताजी- "लो, ई भी भला कोई पूछने की बात है?"
रामभरोसे-"क्यों? मैंने कुछ गलत बात पूछ दिया क्या नेताजी?"
नेताजी- "अरे बुरबक, ई त कॉमन सेंस की बात है. क्या तू इतना भी नहीं जानता कि मंत्री बनने के बाद सबसे पहले क्या किया जाता है?"
रामभरोसे- "क्या किया जाता है नेताजी?"
नेताजी- "पहले एक मतलब कि बात सुनो. आज हमारे देश कि जनता बहुत जागरूक हो गई है. वह बार-बार किसी एक को चुनाव नहीं जिताती. इसलिए मैं सिर्फ एक बार किसी तरह साम, दाम, दंड, भेद से यह चुनाव जीत कर मंत्री जाऊं, फिर उसके बाद देखना कि मैं क्या करता हूँ!"
रामभरोसे- "फिर क्या करेंगे नेताजी?"
नेताजी- "फिर मैं एक ही झटके में इतना बड़ा घोटाला करूंगा कि अगले-पिछले सारे घोटालों का रिकार्ड टूट जायेगा. चारा घोटाला, यूरिया घोटाला, अलकतरा घोटाला, बोफोर्स तोप घोटाला, बाढ़ रहत घोटाला... सब उसके आगे बौने हो जायेंगे. घोटालों के सन्दर्भ में मेरा नाम गिनीज बुक में दर्ज हो जायेगा. फिर उसके बाद मैं मंत्री बनूँ या नहीं, कोई परवाह नहीं. मेरी सात पुश्तों के बैठ कर खाने का जुगाड़ तो हो ही जायेगा."
रामभरोसे- "लेकिन नेताजी, अगर कहीं आप पकडे गए तो फिर तो जेल कि हवा खानी पड़ेगी."
नेताजी- "दूर बुरबक.ऐसा कहीं होता है! बड़े मंत्री को इधर जेल होता है और उधर बेल हो जाता है. अगर बेल न भी हो तो वहां घर जैसा ही आराम मिलता है. खाने में छप्पन भोग, ए.सी.कमरा, गद्दे, रंगीन टीवी, मोबाइल. और तो और जेल के सारे स्टाफ नौकर-चाकर बने रहते हैं. समझा कि नहीं? अच्छा तो अब मैं चलता हूँ."
इतना कहकर नेताजी चले जाते हैं. रामभरोसे उनके चले जाने के बाद अपने आप से कहता है-
रामभरोसे- "वाह नेताजी. अब तो आप में सचमुच एक असली नेता के लक्षण आ गए हैं. मुझे पक्का विश्वास हो गया है कि इस बार आप जरूर चुनाव जीत जायेंगे!"

(पर्दा गिरता है.)

-मनोज कुमार

Monday, September 27, 2010

हंस का फैसला


  • बाल कहानी - मनोज कुमा
नदी के किनारे एक गांव था. गांव के बीच एक छोटा सा बरगद का पेड़ था. उस पेड़ पर चिड़िया का एक जोड़ा घोंसला बना कर रहता था. उस जोड़े का जीवन बड़ा शांतिपूर्वक व्यतीत हो रहा था. तभी एक कौआ उस पेड़ पर आया और चिड़िया के उस जोड़े से कहने लगा-"यह पेड़ हमारा है. तुमलोग इसे छोड़कर चले जाओ."
उस जोड़े ने कहा-"कैसे यह पेड़ तुम्हारा है? हम तो कई वर्षों से यहाँ रह रहे हैं."
"लेकिन अब मेरा है." कौआ बोला.
दोनों के बीच तकरार बढ़ गई. अंत में यह तय हुआ की चलो, हंस राजा के पास चलते हैं. वही इस बात का फैसला करंगे. चिड़िया और कौआ दोनों हंस के पास चले.
उनकी बात सुनकर हंस सोच में पड़ गया. चिड़िया के जोड़े ने उससे कहा-"हम कई सालों से यहाँ रह रहे हैं. मगर यह हमें कभी नहीं दिखा. यह बेवजह हमें सताने के लिए यहाँ आ गया है."
"यह पेड़ हमारे बुजूर्गों का था." कौआ अक्खड़ स्वर में बोला- "मैं कुछ समय के लिए बाहर चला गया, इसका मतलब यह तो नहीं कि तुम उस पर कब्ज़ा कर लो. मैं अब आ गया हूँ. इसलिए तुम्हें वह पेड़ छोडनी पड़ेगी."
कौए की मक्कारी भरी बातों को सुनकर हंस सबकुछ समझ गया. वह सोचने लगा-"यह दुष्ट कौआ बेवजह इन निर्दोष जोड़ों को तंग कर रहा है. वह सीधे कोई बात नहीं मानेगा. इसलिए इसके साथ कूटनीति से काम लेनी चाहिए." यह सोचकर उसने कौए को उस पेड़ पर रहने की अनुमति दे दी. और उस जोड़े से कहा कि वह अगले दिन आकर उससे मिले.
हंस जिस तालाब में रहता था, उसमे उसका एक नाग मित्र भी रहता था. उसका एक अन्य मित्र एक गिध्द भी था. उसने इस मामले में उन दोनों कि मदद लेने की सोची.
उस रात जब कौआ बरगद की एक डाल पर ऊँघ रहा था तभी उसके कानों में यह आवाज पड़ी-"नागराज, मैं बहुत बीमार हूँ. मुझे बैद्यराज गरुड़ ने कहा है कि अगर मैं कौए का मांस खा लूं तो मेरी बीमारी ठीक हो सकती है."
इतना सुनना था कि कौआ चौकन्ना हो गया. उसने देखा, बरगद कि ऊपरी डाल पर एक गिध्द बैठा हुआ है. उसके ठीक सामने कि डाल पर एक काला नाग लिपटा हुआ था. उसने कहा-"गिध्दराज, आज रात ही एक कौआ इस बरगद पर रहने के लिए आया है. मैं उसे डंस लूँगा तो वह मर जायेगा. फिर तुम उसे खाकर अपनी बीमारी दूर कर सकते हो."
इतंना सुनना था कि बरगद कि डाल पर बैठे कौए के होश उड़ गए. उसने सोच-"ओह! यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं है." और अगले ही पल अँधेरे में उसने अपने पंख फड़फड़ाए  और किसी अनजान दिशा कि और उड़ गया.
अगले दिन जब चिड़ियों का जोड़ा हंस से मिला तो उसने बताया कि किस प्रकार उसने अपने नाग और गिध्द मित्र की मदद से एक अनोखी योजना बनाकर कौए को हमेशा के लिए वहां से भगा दिया है. उस जोड़े ने हंस को धन्यवाद् दिया और फिर से बरगद पर आकर ख़ुशी-ख़ुशी रहने लगे.
प्रकाशित- पंजाब केसरी, आर्यावर्त, कान्ति, तरंग भारती, दै. शेरे हरियाणा, मीडिया एंटरटेनमेंट फीचर्स

Wednesday, September 22, 2010

बिहार की राजनीति और चुनाव की आहट

एक पुरानी कहावत है- "प्यार और जंग में सब जायज है." आज के दौर में यह कहना गलत न होगा की "राजनीति और सत्ता की जंग में सब जायज है."
बिहार में विधानसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है. राजनीतिक दल अपनी उठा-पटक में लगे हुए हैं. सभी अपना-अपना समीकरण दुरुस्त करने में जुटे हुए हैं. एक बार फिर से मतदाताओं का दरबार सज गया है. टिकट न मिलने पर नेता एक पार्टी से कूद कर दूसरी पार्टी में ऐसे छलाँगे लगा रहे हैं जैसे पहली पार्टी में छूत का रोग लगा हो. . इससे पता चल जाता है की वे कितनी निःस्वार्थ राजनीती कर रहे हैं.
कहा जाता है की लोकतंत्र में जैसी जनता वैसी सरकार! ऐसे मतलबी और स्वार्थ की राजनीती से प्रेरित नेताओं को सबक सिखाना जनता का ही काम है. ऐसा तभी संभव है जब अवाम भी जातिगत और क्षेत्रवाद की भावनाओं से ऊपर उठकर निःस्वार्थ भाव से सही-गलत का चिंतन करे और अपने मत का मूल्य समझें. मतलबपरस्त, दागदार, बाहुबली नेता अपने सिवा किसी का क्या भला करेंगे? ऐसे स्वार्थलोलुप लोगों से राज्य की जनता को बचकर ही रहना चाहिए. अन्यथा फिर भगवान ही मालिक है.

Wednesday, September 15, 2010

Tuesday, September 14, 2010

हिंदी दिवस की शुभकामनाएँ

सबसे पहले तो आप सबको हिंदी दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ! कम-से-कम अपने देश में एक दिन तो ऐसा है जहाँ अंग्रेजी के पक्षधर लोग भी हिंदी के समर्थन में एक पंक्ति में खड़े दिखते है. १४ सितम्बर को हिंदी दिवस मनाने की परंपरा का निर्वाह करते हुए छः दशक गुजर चुके है, मगर राष्ट्रभाषा होते हुए भी अपने ही देश में, अपने ही घर में, अपने ही लोगों क्र बीच उसे वह हक़ और सम्मान नहीं मिला-जिसकी वह हक़दार है. भला हो बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिन्दीभाषी कुछ राज्यों का - जहाँ भाषाई रूप में यह शीर्ष पर विराजमान है, अन्यथा कई राज्यों में तो यह हाशिये पर खड़ी दिखती है.
ऐसा नहीं है की देश में हिंदी में काम नहीं होता, होता है- मगर आम लोगों की बात छोड़ दें तो ऊँचे तबके और प्रशासनिक महकमे में इसकी उपस्थिति कम से कमतर होती जाती है. हिंदी दिवस के अवसर पर वहां बड़ी-बड़ी बातें तो की जाती है, मगर केवल औपचारिकता वश. सच पूछा जाये तो हिंदी के असली पैरोकार तो यहाँ की आम जनता है. साधारण तबके के वे लोग हैं जो किसी दिखावे में नहीं बल्कि सिर्फ अपने काम में विश्वास रखते हैं. हिंदी दिवस क्या है- कब मनाया जाता है? क्यों मनाया जाता है- उसे इससे कोई विशेष लेना-देना नहीं. लेकिन वह हिंदी का असली पुजारी है. भले ही इसे लेकर उस पर पिछड़ेपन का धब्बा लगे- वह हासिये पर खड़ा रह जाये, लेकिन वही हिंदी का पहरुआ बना रहेगा.
हालाँकि स्थिति अब बदल रही है, हिंदी का वर्चस्व बढ़ रहा है.लेकिन इसका श्रेय उन आम लोगो को जाता है, जिन्होंने इस भाषा को महत्व दिया. इसे अपनाया और काम किया. हाँ, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे और विस्तार देने की जरुरत है, जिसमे सब की भागीदारी अपेक्षित है.

Saturday, September 11, 2010

'फोटोग्राफर की चालाकी'

  • बाल कहानी- मनोज कुमार
एक फोटोग्राफर था. वह हमेशा अपने गले में एक कैमरा लटकाए रहता था. उसे जंगलों में घूमने का बहुत शौक था. अकेले ही वह घने जंगलों एवं पहाड़ियों में जाकर घूमता रहता और वंहा के प्राकृतिक दृश्यों को अपने कैमरे में कैद करता फिरता. ऐसे ही वह एक समय किसी जंगल से होकर गुजर रहा था.
सहसा वातावरण में जोर की एक दहाड़ गूंजी. फोटोग्राफर अपनी जगह पर ठिठक गया. उसने अपने आस-पास देखा. तभी एक पेड़ की ओट से एक बाघ निकलकर उसके सामने आ गया. इसने कहा- "ऐ फोटोग्राफर, आज मैं बहुत भूखा हूँ. तुम्हें खाकर अपनी भूख मिटाऊंगा."
बाघ की यह बात सुनकर फोटोग्राफर डर गया. वह सोचने लगा कि कैसे अब अपने प्राणों कि रक्षा कि जाये? यहाँ उसके जीवन-मरण का सवाल आ खरा हुआ था. वैसे कठिन पल में भी उसने अपनी हिम्मत नहीं हारी और बुद्धि से काम लेने कि सोची.
अगले ही पल उसने संभल कर कहा- "हे बाघ महाराज! ऐसे तो आप मुझे खाकर बड़े घाटे में रहोगे."
"वह कैसे?" बाघ ने आँखे तरेरते हुए पूछा.
फोटोग्राफर के दिमाग में चटपट एक योजना आ चुकी थी. उसने आव देखा न ताव, अपना कैमरा सीधा किया और बाघ कि कई तस्वीरें खिंच डाली.
फिर उसने कहा-"वह ऐसे कि तुम मुझको अगर खा लोगे तो तुम्हें जानने वाला इस दुनियां में कोई न होगा. अगर तुम मुझे छोड़ दो तो मैं तुम्हारी तस्वीरें सरे लोगो को दिखाऊंगा. उन्हें अख़बारों और पत्रिकाओं में छपवाऊंगा. इन्टरनेट पर लोड कर दूंगा. ऑरकुट, चिरकुट, फेशबुक, ट्विटर सभी वेब साईट पर ऑनलाइन कर दूंगा. इस तरह तुम फ़ौरन हिट हो जाओगे और हर कोई तुम्हें जान जायेगा. फिर तो तुम हीरो बन जाओगे और सारी दुनिया में सिर्फ तुम्हारे ही चर्चे होंगे."
"क्या सच?" उसकी बातें सुनकर अचानक बाघ कि आँखे चमक उठी-"तुम मेरी तस्वीरे अख़बारों में छपवाओगे? मुझे ऑनलाइन कर दोगे?"
"हाँ." फोटोग्राफर ने तपाक से जवाब दिया- "बिलकुल."
"फिर ठीक है." बाघ ने खुश होकर कहा-"मैं अब दूसरा शिकार कर लूँगा. तुम जा सकते हो. लेकिन मेरी तस्वीरों को ऑनलाइन करना जरूर."
"वह तो करूंगा ही." इतना कहकर फोटोग्राफर ने अपना कैमरा संभाला और सर पर पांव रखकर वहां से भाग खड़ा हुआ.
प्रकाशित- आर्यावर्त, लोकमत समाचार, रांची एक्सप्रेस, बाल कल्पना कुञ्ज, दैनिक शेरे हरियाणा, तरंग भारती, मीडिया केअर नेटवर्क द्वारा प्रसारित.

Saturday, September 4, 2010

Thursday, September 2, 2010

लेख- E Learning


शिक्षा का बदलता स्वरूप- आदि गुरू से ई-गुरू तक
जैसे-जैसे समय में बदलाव आता गया, शिक्षा के स्वरुप में भी आधारभूत परिवर्तन होता रहा है. एक समय था जब प्राचीन काल में आदि गुरु यथा ऋषि-मुनि अपने आश्रम में छात्रों को शिक्षा प्रदान करते थे. दूर-दूर से छात्र उनके गुरुकुल में आते थे, चाहे वह किसी राजा का पुत्र हो अथवा रंक का, एक साथ गुरु आश्रम में रहकर भिक्षाटन और गुरु की सेवा करते हुए शिक्षा प्राप्त करते थे. गुरु भी सामान रूप से सभी को शिक्षा दिया करते थे. उस समय गुरु का स्थान काफी ऊंचा था. वे हर जगह पूजनीय होते थे. उनका रहन-सहन अति साधारण मुनिवेश हुआ करता था. शिक्षोपरांत शिष्य अपने गुरु को यथासंभव दान-दक्षिणा इत्यादि देकर जीवन क्षेत्र में प्रवेश करते थे. गुरु उन्हें सफल जीवन का आशीर्वाद प्रदान करते थे.
उस कालखंड में गुरुकुल की यह परंपरा काफी लम्बे समय तक चलती रही.
फिर समय के बदलते चक्र में गुरुकुल का स्थान आधुनिक स्कूल-कालेजों ने ले लिया. नित होते नए तकनिकी आविष्कारों ने लोगों के जीवन स्तर में काफी परिवर्तन लाया. इससे शिक्षा का क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा. पढने-लिखने के संसाधनों का अभूतपूर्व विकास हुआ. स्कूल और कालेज जो ज्ञान का केंद्र थे, इन संसाधनों से परिष्कृत होने लगे. भव्य भवन, संपन्न पुस्तकालय, आधुनिक प्रयोगशालाएं, कुशल व समर्पित शिक्षक- ये सब शिक्षा के एक नए केंद्र का स्वरुप गढ़ रहे थे. कुछ केंद्र तो ऐसे निर्मित हुए जो देश-विदेश में काफी प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुए. उनमे प्रवेश पाना काफी गौरव और सम्मान की बात मानी जाती थी. एक तरफ जहाँ नित नए विद्यालय और महाविद्यालय स्थापित हो रहे थे वहीँ दूसरी ओर शिक्षा काफी मंहगी भी होती जा रही थी. सरकारी सस्थानों में तो खैर कोई बात नहीं, किन्तु निजी संस्थानों में पढाई केवल समर्थ लोगों के लिए होकर रह गई.
अच्छे संस्थानों में जहाँ अध्ययन का उपयुक्त वातावरण और संसाधनों की समुचित व्यवस्था थी, वहां सभी के लिए प्रवेश कठिन होता गया. वहां मेधावी छात्र ही प्रवेश पा सकते थे. जनसँख्या के बढ़ते दबाब ने शिक्षा के क्षेत्र में कई नयी चुनौतियाँ पेश की. सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आई. ऐसी स्थिति में शिक्षा के स्तर में भी गिरावट आई.
आम पारंपरिक विषयों की पढाई करने वाले छात्रों का भविष्य कोई निश्चित नहीं होता था की वे आगे  चलकर क्या करेंगे? ऐसे में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या बनकर वर्तमान शिक्षा प्रणाली को चुनौती देने लगा और यह एक गंभीर समस्या बन गई.
शिक्षा शास्त्रियो और विद्वानों ने इस बात पर जोर दिया की हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जो हमें जीवन में व्यवस्थित होने में मदद करे. अतः शिक्षा को रोजगारपरक बनाने की दिशा में पहल शुरू हुआ. समय के अनुकूल पाठ्यक्रमों में ऐसे विषय जोरे जाने लगे जो समय की तेज रफ़्तार में भविष्य की उम्मीदों पर खरा उतर सके. तकनिकी, मैनेजमेंट, पब्लिक सेक्टर इत्यादि क्षेत्रों का चहुंमुखी विकास हुआ.



 चित्र : विभिन्न साइट्स से साभार
कहना न होगा की आधुनिक युग में कंप्यूटर और इन्टरनेट की क्रांति ने शिक्षा जगत का पूरा परिदृश्य ही बदल कर रख दिया है. इसने मानव जीवन के हर पहलू को न केवल प्रभावित किया है, बल्कि देखा जाये तो कार्य-व्यापार के भी हर क्षेत्र में अपनी पैठ बना ली है. सारी दुनिया एक छोटे से गावं में सिमट गयी है, जहाँ दूरियां कोई मायने नहीं रखती. एक देश का आदमी दुसरे देश की खबर चुटकियों में ले सकता है. अपने सम्बन्धी या मित्रों से बातें कर सकता है या फिर शॉपिंग का मज़ा ले सकता है. घर बैठे अनेकानेक कार्य करने की सुविधा मिल गई है.
इतना ही नहीं आज के दौर में पढने-लिखने और मनचाही शिक्षा प्राप्त करने की भी सारी सुविधाएँ इस ग्लोबल विलेज में घर बैठे संभव हो गया है. आदि हरु का स्थान अब ई-गुरु ने ले लिया है. आपके पास कोई प्रश्न है, ई-गुरु हाजिर है. अपने मनपसंद कोर्स कहाँ से करे? इंटरनेट गुरु के पास इसका भी जवाब है. जैसे-जैसे तकनीक उन्नत होती जा रही है, सुविधाएँ धीरे-धीरे आम लोगों तक पहुँच रही है. आम लोगों का जुड़ाव ही किसी भी सिस्टम या तंत्र को आगे लेकर जाता है.
मनमाफिक शिक्षा हासिल करने के लिए ई-गुरु अथवा कह सकते है ऑनलाइन पढाई का क्रेज धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है. सुविधाएँ सिमित होने के कारण भले ही यह प्रणाली अभी आम पहुँच से कुछ दूर है लेकिन इसकी पहल अपने यहाँ भी हो चुकी है. अब जाने-माने अनेक प्रतिष्ठित संस्थान कई तरह के ऑनलाइन कोर्स चला रहे हैं जहा इन्टरनेट के द्वारा विभिन्न विषयों की पढाई होती है. वहीँ समस्याओं का समाधान भी होता है. इन संस्थानों में इग्नू से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय और कई निजी शिक्षण संस्थान हैं जिनके शैक्षिक पोर्टल शिक्षार्थियों को अपनी शिक्षा का लाभ पहुंचा रहे हैं. कई ऐसे छात्र हैं जो पढाई करने के लिए दूर-दराज के शहरों में नहीं जा सकते जिसके अनेक कारण हो सकते हैं. उन छात्रों के लिए ऑनलाइन कोर्स एक बेहतर विकल्प साबित हो रहा है.
शिक्षा जगत में ट्यूशन की भी एक परंपरा बनी हुई है जिसका अपना एक खासा बड़ा बाज़ार है. आजकल तो शहरों में ट्यूशन और कोचिंग के नाम पर मानों लूट मची हुई है. उनकी फीस इतनी भारी -भरकम होती है कि एक आम अभिभावक के सुनते ही पसीने छूटने लगते हैं. ऐसे में ई-ट्यूटर एक वरदान बनकर सामने आया है जिसके ऑनलाइन या ऑफलाइन कोर्स अपने देश में खासे सस्ते हैं.
ऑनलाइन क्षेत्र कि हलचल अपने देश में खासकर दूर-दराज के गाँवों और कस्बाई इलाकों में अभी धीरे-धीरे विस्तार प् रही है. इसलिए लोग अभी इसके आदि नहीं हुए हैं. इंटरनेट का उपयोग बहुत हुआ तो कोई रिजल्ट देखने अथवा सूचना पाने या फिर ई-मेल इत्यादि करने के लिए कर लिया जाता है. सच पूछा जाये तो ये एक बानगी भर है, पूरा किस्सा तो अभी बाकि है.
कंप्यूटर का एक छोटा रूप मोबाइल भी है. एक समय था जब मोबाइल आम आदमी की पहुँच से दूर था. अब यह हर आम और खास व्यक्ति कि जेब में मौजूद है. अगर कभी पांच मिनट के लिए भी नेटवर्क चला जाता है तो लोग बेचैन हो उठते है. यही बात अगर कुछ वर्ष पहले कही जाती, तो शायद कोई यकीं नहीं करता कि ऐसा भी हो सकता है. एक तरफ इंटरनेट पर जहाँ नित नए स्कूल और कालेजों का उदय हो रहा है वहीँ मोबाइल भी अब इससे अछूता नहीं रहा है. अब मोबाइल के द्वारा भी शिक्षा देने कि पहल हो रही है. शैक्षिक कंटेंट्स मोबाइल हैण्डसेटों के अनुरूप बनाये जा रहे हैं. हालाँकि कहने-सुनने में यह बात थोड़ी  अजीब-सी जरूर लगती है, लेकिन वह दिन दूर नहीं जब यह सब हो रहा होगा और हम अपनी आँखों से सब देख रहे होंगे. मोबाइल एक ऐसा बहुपयोगी गैजेट होगा जो हमारे लिए महज बातें करने और मनोरंजन तक ही सिमटा नहीं रहेगा बल्कि बैंक, क्रेडिट कार्ड, सिक्योरिटी सिस्टम इत्यादि के अलावा हर तरह से समर्थ एक गुरु (ट्यूटर) का भी कम करेगा. हाँ इतना तय है कि हमें उसके सही इस्तेमाल के प्रति भी जागरूक रहना होगा अन्यथा बात बिगड़ते भी देर नहीं लगेगी.
टेक्नोलॉजी  के बढ़ते रफ़्तार ने लोगों की सोच को मीलों पीछे छोड़ दिया है. यदि हमें आगे रहना है तो समय के इस बदलते मिजाज को पहचानना होगा और अपने आप को इसके अनुरूप ढालने  के लिए तैयार रहना होगा. 
  • मनोज कुमार
  • published- swatantra warta

Wednesday, August 25, 2010

सकारात्मक सोच

सकारात्मक विचार जीवन  की संजीवनी बूटी है. इसे हमें  सदैव संजो कर रखनी चाहिए. एक नकारात्मक विचार हमें कितना नुकसान पहुंचा सकता है या हमारे कितने अवसरों को ख़त्म कर सकता है, हमें इसका अंदाजा भी नहीं हो पाता. इसलिए जीवन में मिले किसी भी अवसर को भली भांति परख कर ही कदम उठाने चाहिए. अन्यथा ऐसा न हो की समय निकल जाने पर पछतावा हो. हमें सकारात्मक लोगो के साथ रहना चाहिए, अच्छी पुस्तकें पढनी चाहिए और ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे दूसरों को खुशी मिल सके. दूसरों को  खुशी देकर ही हम अपने जीवन में खुशी हासिल कर सकते है. और ऐसा केवल जीवन में सकारात्मक और पोजीटिव सोच से ही संभव है.









  

Tuesday, August 24, 2010

EDUCATION

शिक्षा एक अंतहीन यात्रा के सामान है, जो जीवन पर्यंत साथ चलती है. हमें ऐसी शिक्षा प्रणाली लानी होगी जिससे बच्चों के मुख पर सदा मुस्कान बनी रहे.
- डॉ. ए. प़ी.जे.अब्दुल कलाम